राजेन्द्र जोशी
‘‘ आलोचना रै आंगणै ’’
डॉ. नीरज दइया की राजस्थानी आलोचनात्मक पुस्तक
है । इससे पूर्व डॉ. दइया की कविताए एवं लम्बी कविता तथा लघुकथा संग्रह प्रकाशित
हुए हैं । डॉ. दइया अनुवादक के रूप में भी पहचान रखते हैं और उन्होंने पंजाबी से
राजस्थानी , राजस्थानी से
हिन्दी और हिन्दी से राजस्थानी में अनेक अनुवाद किए हैं । गत वर्षो में राजस्थानी
में आलोचना की रिक्तता को डॉ. नीरज भरने का प्रयास करते हुए आलोचनात्मक टिप्पणियां
करते रहे हैं ।
‘‘ आलोचना रै आंगणै ’’ उनकी आलोचना की पहली पुस्तक है । डॉ. नीरज दइया के अध्ययन का क्षेत्र व्यापक
हैं । डॉ. दइया की सृजन भाषा का इतिहास मापा नहीं जा सकता है , उन्होंने कम समय में अधिक लिखने का काम किया
हैं ।
डॉ. नीरज दइया ने अपनी पुस्तक में अनेक विधाओं और राजस्थानी
लेखकों को शामिल करने का प्रयास किया है । डॉ. दइया ने अठारह अध्यायों में विभिन्न
राजस्थानी लेखकों और विभिन्न विधाओं को प्रस्तुत किया है । डॉ. दइया द्वारा प्रस्तुत अधिकतर आलेख या
तो पूर्व में प्रकाशित हो चुके अथवा किसी संगोष्ठी में पढ़े गए हैं , जिसके कारण
आलोचना का स्वर विधा अनुरूप प्रस्तुत नहीं किया जा सका , जिस प्रकार प्रथम अध्याय ‘‘ आधुनिक कविता रा साठ बरस ’’ मे राजस्थानी कवि और कविताओं का अध्ययन है और
फिर ’’ श्री प्रेमजी प्रेम की
सिरजण - जातरा ’’ में उनकी काव्य
जातरा को पूरा स्थान दिया गया । उचित होता कि कविता के अध्याय में इनका अध्याय
शामिल होता । ऐसे में पाठक को आलोचना की दृष्टि से पढ़ने में आसानी ही रहती । अगर
व्यक्ति परख देखा जाए तो आलोचना की पुस्तक में शख्सियत का सा सांगोपांग आभास होता
है , श्री नानूराम संस्कर्ता ,
श्री कन्हैयालाल सेठिया और श्री प्रेमजी प्रेम
को पूरा स्थान दिया गया हैं ।
आलोचक ने आधुनिक कविता के साठ वर्ष शीर्षक
में राजस्थानी कवियों की कविता के विश्लेषण का प्रयास तो किया है परंतु कवियों के
विस्तृत विश्लेषण के आधार पर और अधिक तर्क संगत आलोचना की गुंजाइश नजर आती हैं।
आलोचक ने इस अध्याय में नई कविता के टोप - टेन कवियों कमशः कन्हैयालाल सेठिया,
भगवती लाल व्यास, मोहन आलोक, सांवर दइया,
चन्द्रप्रकाश देवल , अर्जुन देव चारण और ओम पुरोहित ‘ कागद ’ को चुनकर उनकी
काव्य यात्रा पर गंभीर विवेचन किया है। इस श्रेणी में मालचंद तिवाड़ी, वासु आचार्य , डॉ. आईदान सिंह भाटी , कुंदन माली एवं स्वंय नीरज दइया सहित अन्य महत्वपूर्ण
कवियों की की कविताओं पर भी समग्रता से विचार करने की अपेक्षा थी । इन दस कवियों
का चयन ही क्यों गया , इस पर भी तार्किक
मंतव्य की आवश्यकता दृष्टिगोचर होती हैं ।
आलोचक डॉ. दइया ने श्री अर्जुनदेव चारण के नाटकों में नारी
को सार रूप में प्रस्तुत किया है । चंूकि आंगन आलोचना का है जिसमें अन्य राजस्थानी
नाटकों को भी प्रस्तुत किया जा सकता था जिससे आलोचनात्मक परख पाठको के सामने आती
और पाठक को यह जानकारी भी प्राप्त होती कि राजस्थानी में किस प्रकार के नाटक लिखे
जा रहे हैं , क्योंकि इस
अध्याय में डॉ. दइया ने लिखा है ‘‘ नाटक री कथा रो
रचाव किण ढाळै करीजे ? ’’ और ‘‘ इण गति रो लखाव बैवाव में बैवां तद ई हुय सकै ।
पाणी दैठै री जमी रो अंदाजो पाळ माथै ऊभैनीं हुय सकै । गोतो लगायां ई ठाह लागै के
मांय कांई है , कितो है कढै है। ‘‘
आलोचक के अनुसार ही कुछ और नाटकों का जिक्र
अथवा अन्य नाटकों की परख इस पुस्तक में आलोचना के स्वर में आती तो पाठक के लिए भी
परख करने की आसानी हो सकती थी ।
तीसरे अध्याय ‘‘ आधुनिक कहाणी: शिल्प अर संवेदना ’’ के प्रथम ढ़ाई पृष्ठ में आलोचक ने शिल्प संवेदना के जरिये आधुनिक कहानी के रचाव
को प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है । हालंाकि आलोचक ने आधुनिक कहानी और
कहानीकार की जोरदार व्याख्या करते हुए एक जगह स्पष्ट किया है कि ‘‘ आधुनिक कहाणी अेक रचाव है , जिण मांय आगूंच कोई पण कहाणी रो आदि - अंत तै - सुद़ा
कोनी हुवै । कहाणीकार नै कलम लिया पछै ई
ठाह कोनी हुवै कै आ कहाणी बणसी का कोनी बणै । ’’ आलोचक राजस्थानी में कहानीकार के शिल्प पर कहते है कि ‘‘
आज री आधुनिक कहाणी मांय कहाणीकार री दखल कम
संू कम हुयगी है , सो कहाणी आपरी
संवदेना में सांवठी निगै आवै । ’’
आलोचक ‘‘ संवदेना अर शिल्प
री दीठ संू लोक कथावां में ठैराव अेकरसता रै रूप में निगै आवै ’’ मान रहे हैं और आधुनिक कहानी को आलोचक कहाणी
मांय तो हरेक कहाणीकार री आपरी निजू शैल्पिक खेचळ संवेदना नै परोटण पेटै देख सकां
। पर फिर आलोचक भारतीय भाषाओं के साथ
राजस्थानी कहाणी को खड़ा मानते है ‘‘ आ बात जुदा है कै आधुनिक कहाणी उण परपंरा संू निकळी है या बगत री मांग
स्वीकारता भारतीय भासावां रै जोड़ मांय आधुनिक बणावण खातर कहाणीकार इण नै नुवै सरूप
में ऊभी करी है । ’’ आलोचना की दृष्टि
से आलोचक राजस्थानी कथाकारों को क्या सुझाव देना चाहते हैं ? शेष पृष्ठों में प्रकाशित कहानियों के अंश
प्रकाशित करते हुए कहानीकारों के नाम और कहानियों का उल्लेख करते हैं ।
आगे के अध्यायों में श्री यादवेन्द्र शर्मा ‘‘ चन्द्र ’’ और श्री मोहन आलोक के कथा - संसार को विस्तार देते हुए
उन्हीं के कथा - संग्रहों के परिपेक्ष्य में उन्हे बेजोड़ कथाकार के रूप में
प्रस्तुत किया है । आलोचना की दृष्टि से उनकी कहानियों को अन्य कथाकारों की
कहानियों के समकक्ष रखते हुए प्रस्तुत किया जा सकता था ।
डॉ. नीरज ने ‘‘ लघुकथा री विकास - जातरा ’’ को एक ही अध्याय
में प्रस्तुत करते हुए पाठकों के लिए उपयोगी बना दिया है इसमें अनेक लघुकथाओं को
स्थान दिया है । लगभग सभी लघुकथाओं केी पुस्तकों को समाविष्ट करते हुए उनके काव्य
एवं शैल्पिक पक्ष को उद्धाटित करते हुए लघुकथा यात्रा की विवेचना की गई है ।
आलोचना रै आंगणै में उपन्यासों पर भी परख का जोरदार प्रयास
किया गया है । 1999 के साहित्य
दरसाव के रूप में भी एक अध्याय 28 पुस्तकों के
आधार पर तथा शिक्षा विभाग के राजस्थानी प्रकाशन को भी प्रस्तुत किया है । डॉ. दइया
ने राजस्थानी साहित्य के दस वर्षो की परख भी करते हुए चार पृष्ठों में दस बरसों के
साहित्य की शानदार प्रस्तुति की हैं । राजस्थानी भाषा में विविध विधाओं में निरंतर
सृजन हो रहा है किन्तु आलोचना के क्षेत्र में गंभीरता से लेखन करने वाले अतिअल्प
है । डॉ. नीरज दइया आलोचकीय कर्म को जिम्मेदारी के साथ निभाते हुए राजस्थानी
साहित्य सृजन के विभिन्न पक्षों को उद्धाटित विश्लेषित करने का सराहनीय कार्य कर
रहें है । ‘‘ आलोचना रै आंगणै ’’
उसका साक्ष्य है । डॉ. नीरज दइया को बधाई ।
राजेन्द्र जोशी, तपसी भवन, नत्थूसर बास, बीकोनर- 334004 Mob. 9829032181
‘‘ आलोचना रै आंगणै ’’:
डॉ. नीरज दइया , बोधि प्रकाशन , जयपुर । मूल्य 150/- पृष्ठ