कीं अळगै ढाळै री कवितावां : साख

- नवनीत पाण्डे
       “म्हैं सबदां रो, बाजीगर नीं/ कारीगर बणणो चावूं
        म्हैं आभै माथै नीं / धरती माथै उतरणो चावूं.....”
युवा कवि नीरज दइया री नवी कविता पोथी ‘सा’ री ऐ ओळ्यां संग्रै री एक-एक कविता सारू पतियारो दिरावै कै कवि आपरै अणभव-प्रमाण अखै-कखै रै सांच रा सांवठा चितराम आं कवितावां री ओळी-ओळी में उकेरिया है। ऐ कवितावां राजस्थानी कवितावां मांय एक ताजा हवा रै झौंके री दांई है, जिण री साख इण संग्रै री कवितावां रा एक-एक हरभरता लखावै। कवि कैवै-
       “पण नीं है कोई कारी/ म्हारै दरद री/ साभरै/ म्हारा सबद-सबद।
       आं कवितावां मांय निपट निजू अभवां सूं लेय नै समाजू सरोकारां, नाता-रिस्ता, साख-संबंआज रै जथारथ-परक जुगबोध रै अलावा मिनखाचारै नै बचावण री खेचळ करती संवेदनावां रो समद हिलोळा लेवतो लखावै, जिण मांय कवि री पीड़ा नै हर मिलै- “कवि री पीड़/ पाळा है खर/ कियां कूं म्हैं।
       जूनी पीढी अर सांस्कृतिक विरासत सारू कवि-मन णो आस्थावान है- ूंठ रै मांय/ णै ई म्हनै दीसै/ एक लीलो छम रूंख अर पां रै पांती री छियां।
       कवि स्वार्थी लोगां सूं सावचेती रो संकेत करतो थको कैवै- “म्हैं गाफल रैयो/ थे होकड़ा लगा लगा’र/ रचता रैया/ नित नवा रास/ म्हनैं अळगो रा/ सांच सूं/ थां साज्या थांरा मतलबड़ी ई सावचेती री झलक एक निजू कविता में पाठकां नै झोरती लखावै-
       बाबा/ थारै छळ-छंदां बाबत/ म्हारी हदां है पोची/ म्हैं म्हारी सींवां मांय/ छेवट धारली है माठाई/ अर नटग्यो हूं- गोटी बण’र सिरकण सूं।
        इण संग्रै री सैंग कवितावां में भाव संवेदनावां अर अणभवां री त्रिवेणी हिलोरा लेंवती खावै अर कठैई ड़ो नीं लखावै कै ओ संग्रै कवि रो पैलो काव्य संग्रै है। कवि किणी आस सूं नीं बंधणो चावै। बो कैवै- “म्हनै ना बांधो किणी आस सूं/ आस तूट्यां घट मांय आवैला देवता/ अर म्हैं लिूंला कविता....
        आपां रै पांती री छियां, मन रै ऐन बिचाळै, दादी दांई दुनिया, कांई सांचाणी, पगोिया, अखराऊं थानै, ओख री आरसी, राजा नीं देखै, कै रो मारग, सारै सबद, रचाव रा रंग, भदरक, बेमाता ई ूलगी, हीणै मन री ओट, दूचो, पतियारो, ूमै है दुनिया अर घर आद कवितावां नै टाळनै ‘ओ म्हारो न’ रा कीं हाइकमें कवि रै दार्शनिक विचारां रा दरसाव ई मिलै। बीजै कानी निजू संबंधां सूं जुड़ियोड़ी कवितावां ई है, जिकी इण संग्रै री ई नीं, समकालीन राजस्थान कविता री सिरै कवितावां मांय भी गिणावण जोग है। “म्हारी बात-बात मांय/ मा नै निगै आवै/ जीसा रो टको।” जैड़ी कित्ती ई ओळ्यां इण बात री साखी है।
      थारी साख मांय/ म्हैं करी ओळख/ कै कांई-कांई कर सकै पग/ अर कांई-कांई करीज सकै है पगां सूं” जैड़ी काव्य-चेतना साथै कदम-ताळ करतै कवि री प्रेम-दीठ ई सरावण जोग है- “अबै ूं/ म्हारै अंतस रै आ आंगणैआंगणै/ गुलाब रै उण फूल साथै जीवै है अर म्हारै सबदां री नदी मांय/ बैवै उडीक साथै।” 
     इण संग्रै री कवितावां भाव-भासा अणभवां री दीठ सूं घणी गैरी नै ऊंडी जमीन जोवती निगै आवै, जिण रा सीधा-सादा ऊमरां मांय विविध-बरणां मोत्यां रै उनमान उपजी है ऐ कवितावां अर इणी सागै कवि री ऐ ओळ्यां पतियारो दिरावै कै अजेस रचाव रा रंग खूट्या नीं है अर कीं और टाळवीं कवितावां लिखी जावैला- रचाव रा रंग/ हाल खूट्या नीं है/ अजेस बाकी है आवणी/ दुनिया री/ कीं टाळवीं कवितावां।” 

साख (कविता संग्रै) नीरज दइया प्रकाशक- नेगचार प्रकाशन, बीकानेर संस्करण 1997, पेज 80, मोल 70/-