मूळ कवितावां रो साखीणो अनुसिरजण : ऊंडै अंधारै कठैई

    ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ संग्रै मांय मनीसी कवि नंदकिशोर आचार्य री चवदै काव्य-पोथ्यां मांय सूं चारबीसी-तीन टाळवीं कवितावां रो अनुसिरजण, ऊरमावान कवि-आलोचक डॉ. नीरज दइया घणै मनोग्यान सूं करियो है। आपां मांय सूं घणा-सारा पाठक नंदकिशोर आचार्य री थोड़ी-भोत कवितावां जरूर पढ़ी है, पण बांरै सांवठै सिरजण री सांवठी बानगी सूं रू-ब-रू होवण वाळा भोत कम ई पाठक मिलैला। आं पाठकां मांय गीरबैजोग अेक नाम डॉ. नीरज दइया रो भी है, जका नंदकिशोरजी री सैंग काव्य-पोथ्यां री कवितावां नै नीं फगत पढी, पण पढणै रै सागै-सागै मूळ कवितावां रै मर्म नैं भावाभिनय रै समचै सहेज्यो, अंवेरियो अर आत्मसात ई करियो। ओ ईज कारण रैयो कै अनुसिरजक आपरी दीठ सूं आं कवितावां मांय अेक-सूं-अेक इधकी कवितावां इण संग्रै मांय पाठकां सारू संजोई है।
    संग्रै रै ‘आमुख’ मांय अनुसिरजण नैं मूळ कविता रो भावाभिनय बतावता थकां अनुसिरजक लिखै- ‘आचार्यजी री नाटक माथै लिखी कवितावां बांचता म्हनै लखायो जाणै अनुसिरजण ई अेक भांत रो भावाभिनय हुवै। जिण ढाळै नाटक मांय कलाकार आपरै अभिनय सूं मूळ पात्र अर मूळ रचाव नै जीवै, ठीक बियां ई अनुसिरजण मांय म्हैं मूळ कवि अर कविता नै जीवण री पूरी-पूरी कोसीस करतो रैवूं।’ हरख री बात है कै डॉ. दइया इण कोसीस मांय भरोसैजोग भावाभिनय करियो है। ‘आमुख’ मांय बै लिखै- ‘कवि री मौलिकता इण मांय हुवै कै बो घणी कवितावां बांचै। किणी कविता पेटै म्हनै लागै कै आ म्हारी भासा में आवणी चाइजै तो अेक तरीको तो ओ है कै उण जोड़ री कविता रचूं। कोई कवि किणी कवि जिसी कोई रचना रचै, तो मौलिकता कांई हुवै?’ अैड़ी सैंग जिग्यासावां रा समाधान इण कवितावां मांय ईज मिल जावै।
    ‘मूळ’ कविता री बानगी देखो- ‘रचूं थन्नै/ कित्ती भासावां मांय/ मूळ है हरेक भासा मांय/ कठैई थूं अनुसिरजण कोनी। बसंत री हुवै का पतझड़ री/ पंखेरूवां री का पानड़ा री/ भाखरां री का झरणां री/ काळ री का बिरखा री।
    मरुथळ रै बुगलां री हुवो/ समदर रै तूफानां री/ लुकोवण री, का भेद खुल जावण री/ मून री हुवो का बंतळ री/ रोवण री, मुळकण री/ मिलण री, का मिलण सूं ईज/ आंती आय जावण री।
    हरेक मौलिकता/ आपोआप मांय निरवाळी--/ म्हारी हरेक कविता/ भासा नै नवी करती थकी।’
    इण कविता नैं प्रस्थान-बिंदु मानता थकां जठै मौलिकता, मूळ कविता अर अनुसिरजण रो जथारथ पाठकां साम्हीं आवै बठै ईज संग्रै री हरेक कविता भासा नै नवी करती लखावै। किणी अेक भासा री भावभोम रो बीजी भासा में हू-ब-हू रचाव, अनुसिरजण रै सीगै, अेक लोक सूं बीजै लोक री जातरा दांई लखावै। डॉ. दइया रै सबदां में- ‘म्हारी दीठ मांय नंदकिशोर आचार्य री पूरी काव्य-जातरा री असल कामाई किणी अरथ मांय ऊंडै अंधारै कठैई पूग’र आपरै बांचणियां साम्हीं अबोट साच लावणो मानी जावैला। इण ओळी नै दूजै सबदां मांय इण ढाळै कैय सकां कै बै ऊंडै अंधारै कठैई फगत पूगै ई कोनी, आप भेळै बांचणियां नै उण अंधारै रै लखाव मांय लेय’र जावै। आ अेक लोक सूं दूजै लोक री जातरा कैयी जाय सकै। जूनै रंगां साम्हीं नवा रंग, नवा दीठाव। आज पळपळाट करती इण दुनिया मांय कोई पण दीठाव सावळ-सावळ आपां अंधारै री दिसाअ सूं ईज देख-परख सकां।’ आ बात खरी है, अंधारै बिना उजाळै रो कांई अरथ? तमसोमाज्योतिर्गमय रै मारग बगती अै कवितावां ‘बगत’ मांय आपरै होवणै नैं अरथावै। ‘बगत’ कविता री अै ओळियां देखो- ‘बगत सूंप्यो-/ खुद नै/ म्हनै/ कीं ताळ तांई/ कै कीं बगत खातर/ बगत हुयग्यो हूं म्हैं।/ टिपग्यो सगळो बगत/ इणी दुविधा मांय।/ नीं बगत बणायो/ म्हारो कीं/ नीं बणा सक्यो म्हैं ईज/ बगत रो कीं।’ (पृ.68)
    बगत बीततो जावै अर जीयाजूण री जातरा ई मजल कानी बधती जावै। इण जातरा में खथावळ री ठौड़ मारग रै चप्पै-चप्पै सूं हेत दरसांवता थकां कवि कैवै- ‘रैयग्या दीठावां मांय’ - इण छेहलै पड़ाव माथै/ आंख्यां साम्हीं आवै/ बै सगळा दीठाव/ निरांयत सूं मिलणो नीं हुयो/ बेगो पूगण री खथावळ मांय-/ मजल पूग्यां ई/ अधूरी ईज रैयी जातरा।/ मजल माथै पूगणो जातरा कोनी/ मारग सूं प्रेम पाळणो पड़ै। - भटकूं छूटियोड़ा दीठावां मांय/ कर रैयो हूं अबै जातरा। (पृ.79)
    इण संग्रै री कवितावां मांय जीयाजूण रा बहुआयामी दीठाव आपां साम्हीं आवै, जठै प्रकृति-प्रेम रा दीठाव है, आतमा-परमातमा अर फेर- जलम रै भरोसै रा दीठाव है। अेक ठौड़ कवि कैवै- ‘फेरूं जलमण खातर’- किणी नै ठाह कोनी/ म्हारै आतमघात बाबत/ म्हनै खुद नै कठै ठाह हो/ खुद म्हैं टूंपो दियो/ आतमा नैं खुद री/ अर ओ जिको दीसूं आपानै/ हूं लोथ उण री/ पण आज/ अै आंख्यां/ जिकी कीं आली हुयगी-/ स्यात उणी रो दरद है/ फेरूं जलमण खातर म्हारै मांय। (पृ.78)
    अठै परायै दुख दूबळो नीं हुवण री मनगत मांय परदुख-कातरता रा दीठाव भी है। ‘पण आपां नै कांई’ कविता में कवि कैवै- ‘देखो/ मोरियै नै देखो/ जिकी पांख्यां सूं आपां नै/ बो दीसै रूपाळो/ पण कोनी भरीजै उडार/ बां रै पाण-/ लांबी अर ऊंधी।/ पण आपां नै कांई/ बस आपां तो राजी हां/ देख’र उण रो नाच। (पृ.91)   
    आं ओळ्यां मांय हर किणी रै दुख-दरद नै देखण-परखण री दीठ रो दीठाव हुवै, बठै ई सबद रै सीगै जीवण मांय औचित्य री अंवेर रा दीठाव भी है। ‘आसरै फगत ठौड़ माथै’ कविता री अै ओळियां इणी बात री साख भरै- ‘अेक सबद री ठौड़/ बदळियां/ बदळ जावै जाणै/ कविता री आखी दुनिया/ ठीक बियां ईज बदळ जावै/ सबद रो ई आखो-संसार।/ कांई किणी खुद रो/ कोनी कोई अरथ/ स्सौ-कीं है आसरै/ फगत ठौड़ माथै।’ (पृ.95)
    जाणै ऊंडै अंधारै कठैई अै दीठाव दीठाव जीयाजूण रा महताऊ पड़ावां माथै पळका नाखता थकां आपां नै मांयली-बारली दुनिया री नवी ओळखाण करावै। जठै जीयाजूण रा फीका पड़ियोड़ा रंग फेरूं खिल जावै। ‘जीयग्या’ कविता मांय अैड़ो अेक दीठाव देखो- ‘रंग/ जिका हुयग्या हा/ ठाडी ओस मांय/ गूंगा-/ अेक चिड़कली रै सुर में/ सगळा पाछा खिलग्या।’ (पृ.94)
    अंधेरे मांय सगळा रंग अेकमेक हुय जावै। किणी री अळगी ओळखाण री कल्पना तकात नीं करी जाय सकै। अैड़ै में ‘अंधारै ई ठीक’ कविता मांय नीं होवणै रो होवणो सबळाई सूं प्रगट हुवै- ‘भलांई कोनी/ म्हैं कठैई/ थारै दीठाव मांय/ अंधारै ई ठीक हूं।/ दीठाव सूं थाक’र/ जद-जद मींचीजैला आंख्यां/ लाधूंला म्हैं बठैई।’ (पृ.88)
    जीयाजूण मांय मोकळी अंवळायां-अबखायां है, पण जको सुख ‘सम’ माथै आयां मिलै, बो भाग-दौड़ मांय कठै है? ‘दिनूगै-सिंझ्या’ कविता मांय कवि कैवै- ‘आखै दिन/ खीरा उछाळतो जिको सूरज/ दिनूगै-सिंझ्या/ जद-जद धरती रै/ साथै हुवै/ हुय जावै कित्तो कंवळो/ कित्तो ऊजळो।’ (पृ.89) इण कविता नैं बांचती वेळा म्हनै लाग्यो, जाणै ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ री ठौड़ इण संग्रै रो नाम ‘मुंअंधारै कठैई’ भी राख्यो जाय सकै हो। दिनूगै सूं पैलां अर दिन आथमती वेळा ‘मुंअंधारै’ री संग्या सूं जाणी जावै। पण ऊंडै अरथ मांय ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ शीर्षक सारथक लखावै। इण कविता मांय कवि कैवै- ‘जिका दिखावणो चावै खुद नै/ बै जावै/ अंधारै सूं उजास कानी/ म्हैं जिको/ मन-आंगणै थारै/ लेवणी चावूं कठैई नींद/ ऊंडै अंधारै/ क्यूं भटकूं उजास खातर/ जिको कर देवै म्हनै थारै सूं अळगो।’ (पृ.63)
    ‘अभिनय कांई आतमघात हुवै’ अर ‘होकड़ो’ कवितावां मांय भी जीयाजूण रै मंच माथै आपरै होवणै अर आतम-ओळखाण रा दीठाव है। इण होवणै मांय कवि होवणो तो और ई अरथाऊ बात है। ‘कवि ईश्वर हुवै’ कविता मांय कवि कैवै- ‘जद कुमळावै फूल/ -खिलै जिको कुमळावै ईज-/ बसा लेवै उणां नै/ सबदां मांय आपां रै गुण मानता थकां/ खिल जावैला कुमळायोड़ा बै\ आ कविता ईज है/ कुमळायोड़ा नै ई खिला देवै-/ कवि इणी खातर ईश्वर मानीजै।’ (पृ.71)
    बारै री दांई अेक स्रिस्टि कवि रै मांयनै पण हुवै। जिकी बारै री स्रिस्टि सूं संवाद करणो चावै। “खोलै कोनी किंवाड़’ कविता मांय कवि कैवै- ‘अेक दुनिया बारै/ अर अेक मांय म्हारै।/ बा जिकी बारै है/ मिलणो चावै/ आय’र मांयली सूं/ इणी खातर खड़कांवती रैवै/ जद-कद उण रो कूंटो। (पृ.97)  इंसान मांय भगवान भी हुवै अर सैतान भी। दोनूं अेक-बीजै बाबत सोधै। अैड़ै में मानखै री मनगत रो भूंडो हाल हुंवतो लखावै। ‘कुटीजूं म्हैं’ कविता री अै ओळियां निजर है- ‘सैतान सोधै ईश्वर बाबत, सदीव/ अर सैतान बाबत ईश्वर।/ कूटीजूं म्हैं/ दोनूं बिचाळै/ दोनूं बसै मांय म्हारै/ सोचै--/ अेक-दूजै बाबत।’ (पृ.96) 
    इणी भांत जीयाजूण रै अंधारै-ऊजळै पखां नैं पड़तख करती आं कवितावां मांय ‘बरबरीक’ अर ‘पांचाली’ रा पौराणिक दाखलां रा दीठाव ई देखणजोग है। ‘बरबरीक’ में महाभारत रै जुद्ध में चतुर्भुजधारी री बाजीगरी बतावता थकां बरबरीक रै मूंढै सूं कवि कैवावै- ‘साम्हीं दीठाव भिड़ती हुवै/ छियावां कठपूतळियां री जियां।/ साच है, हां/ कठपूतळियां ई हा सगळा बै--/ जिकी नै डोर सूं झल्यां आभै मांय/ बो दीसै हो म्हनै/ चतुर्भुजधारी अेक बाजीगर/ खुद रै खेल सूं राजी/ - बो भयानक जुद्ध उण रो खेल ईज तो हो।’
    बीजै कानी ‘पांचाळी’ मांय द्रौपदी री मनगत केई ऊंडा अरथ उघाड़ती लखावै। भीष्म जद कैयो कै- ‘दुष्टां रो अन्न मति बिगाड़ दी ही।’ तद द्रौपदी रा अै बोल- ‘ना, पितामह/ अन्न तो बो सागी ई खावतो हो विकर्ण ई।’ सामाजिक नै नवी दीठ देवै। अै कवितावां धरम, अरथ, काम अर मोक्ष जैड़ा समाजू सरोकारां सूं जुड़िया सवाल उठावै अर राग-विराग सूं जुड़ी लोकमानसिक वृत्तियां रो ऊंडो जथारथ उघाड़ती थकी ‘दिन रो ई दिन’ दिखावण री आफळ करती ई लखावै। कवि कैवै- ‘कित्ता’क दिन रैवैला/ रात?/ कदैई तो आसी/ दिन रो ई दिन/ कोई तो।’ (पृ.51)
    म्हैं इण सांतरै अनुसिरजण सारू अनुसिरजक अर प्रकाशक नै हियैतणी बधाई देवूं। मूळ सिरजक री आसीस बिना तो ओ अनुसिरजण संभव ई नीं हो, बांनैं घणा-घणा रंग। प्रणाम"
० डॉ. मदन सैनी
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पोथी : ऊंडै अंधारै कठैई / विधा : अनुवाद (काव्य)
मूळ : नंदकिशोर आचार्य (हिंदी) / अनुवाद : नीरज दइया
संस्करण : 2016, पैलौ / पृष्ठ : 120, मोल : 200 रुपया
प्रकासक : सूर्य प्रकाशन मंदिर, दाऊजी रोड (नेहरू मार्ग), बीकानेर- 334005

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शिविरा, अगस्त 2016 में प्रकाशित --->>

मूल कविताओं का सार्थक अनुसृजन : ऊंडै अंधारै कठैई

    ‘ऊंडै अंधारै कठैईसंग्रह में मनीषी-कवि डॉ. नंदकिशोर आचार्य के 14 काव्य-संग्रहों से चयनित 83 कविताओं का अनुसृजन, ऊर्जावान कवि-आलोचक डॉ. नीरज दइया ने गहन मनोयोग से किया है। इस अनुवाद के बहाने डॉ. दइया ने आचार्य के संपूर्ण कवि-कर्म का अध्ययन-मनन और चिंतन कर मूल कविताओं के मर्म और आत्मा तक पहुंचे है। अनुवाद को भावाभिनय की संज्ञा देकर सच में अनुवादक ने मूल भावों और व्यंजनाओं को सहेजते-संभालते आत्मसात कर यह अनुवाद किया है। यही कारण है कि एक से बढ़कर एक कविताओं को अनुवादक ने अपनी कवि-दृष्टि और विवेक से चयनित कर एक सार्थक अनुसृजन पाठकों को उपलब्ध करवाया है। अनुवादक के शब्दों में- ‘‘जिस प्रकार नाटक में कलाकार अपने अभिनय से मूल पात्र और समग्र रचाव को जीता है, ठीक उसी भांति मैं भी अनुसृजन करते हुए मूल कविता को भीतर गहरे तक जीने का पूरा-पूरा प्रयास करता हूं।” हर्ष का विषय है कि संग्रह में डॉ. दइया ने जीवंत अनुवाद कर कविताओं को अपनी मातृभाषा राजस्थानी में पुर्नजीवित किया है।  
            राजस्थानी में काव्यानुवाद का एक अंश देखिए- “रचूं थन्नै/ कित्ती भासावां मांय/ मूळ है हरेक भासा मांय/ कठैई थूं अनुसिरजण कोनी। बसंत री हुवै का पतझड़ री/ पंखेरूवां री का पानड़ा री/ भाखरां री का झरणां री/ काळ री का बिरखा री।”
            एक भाषा की भावभूमि को अन्य भाषा में हू-ब-हू अनुसृजन के माध्यम से सृजित करना असल में एक लोक से अन्य लोक की यात्रा है। डॉ. दइया के शब्दों में- “मेरी दृष्टि में नंदकिशोर आचार्य की समग्र काव्य-साधान की असल कमाई किसी अर्थ में गहन अंधकार में कहीं पहुंच कर अपने पाठकों के समक्ष सर्वथा नवीन सत्य का उद्घाटन ही है। इसे दूसरे शब्दों में इस भांति कहा जा सकता है कि वे निवड़ अंधकार में सिर्फ पहुंचते ही नहीं, वरन अपने साथ पाठकों को भी उस अंधकार के अहसास में ले कर जाते हैं।”
            यह बात सत्य है, बिना अंधेरे के, उजाले का क्या अर्थ? तमसोमाज्योतिर्गमय के मार्ग चलती ये कविताएं अपने समय में अपने होने को व्याख्यायित करती हैं। बगतकविता की ये पंक्तियां देखिए- बगत सूंप्यो-/ खुद नै/ म्हनै/ कीं ताळ तांई/ कै कीं बगत खातर/ बगत हुयग्यो हूं म्हैं।/ टिपग्यो सगळो बगत/ इणी दुविधा मांय।/ नीं बगत बणायो/ म्हारो कीं/ नीं बणा सक्यो म्हैं ईज/ बगत रो कीं।’ (पृ.68)
            इस संग्रह की कविताओं में जिंदगी के बहुआयामी-विविधवर्णी दृश्य-चित्र हमारे समक्ष आते हैं, इन में प्रकृति-प्रेम के दृश्य हैं, आत्मा-परमात्मा और फिर-फिर जन्म-मरण के विश्वास हैं। यहां दूसरों के दुख में दुर्बल होने की मनःस्थितियों में परदुख-कातरता के भी अनेक चित्र हैं। ऐसे में इस पुस्तक का पाठ अपने आप में एक द्वितीय अनुभव-यात्रा है।
            जिंदगी के अंधेरे-उजालों को प्रत्यक्ष साकार करती संग्रह की कविताओं में ‘वरबरीक’ और ‘पांचाली’ के विशेष पौराणिक संदर्भ उल्लेखनीय हैं। ‘बरबरीक’ महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण की उपस्थिति को बाजीगरी बताते हुए, बर्बरीक के मुख से कवि ने कहलवाया है- “साम्हीं दीठाव भिड़ती हुवै/ छियावां कठपूतळियां री जियां।/ साच है, हां/ कठपूतळियां ई हा सगळा बै--/ जिकी नै डोर सूं झल्यां आभै मांय/ बो दीसै हो म्हनै/ चतुर्भुजधारी अेक बाजीगर/ खुद रै खेल सूं राजी/ - बो भयानक जुद्ध उण रो खेल ईज तो हो।”
            एक अन्य और संग्रह की अंतिम कविता पांचाळीमें द्रौपदी की मनःस्थिति के कई गहरे-गहन अर्थ दर्शाती लंबी-कविता है। इस में जब भीष्म कहते हैं- दुष्टां रो अन्न मति बिगाड़ दी ही।तब द्रौपदी के ये शब्द- ना, पितामह/ अन्न तो बो सागी ई खावतो हो विकर्ण ई।सामाजिक को नवीन दृष्टि और अर्थ देने वाले हैं। ये कविताएं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे सामाजिक-सरोकारो से जुड़े अनेकानेक प्रश्नों को न केवल उठातीं हैं, वरन उनके भीतरी राग-विराग से जुड़ी लोकमानसिक वृतियों का भी गहन यर्थाथ प्रस्तुत करती हुई दिन रो ई दिनदिखाने के प्रयास करती दिखाई देती हैं। कवि के शब्दों में- कित्ताक दिन रैवैला/ रात?/ कदैई तो आसी/ दिन रो ई दिन/ कोई तो।’ (पृ.51)
            मैं इस शानदार अनुवाद के लिए अनुवादक डॉ. नीरज दइया और प्रकाशक को हृदय से बधाई देता हूं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मूल कवि डॉ. नंदकिशोर आचार्य के बिना आशीर्वाद के यह अनुवाद संभव नहीं था, उनको भी बहुत-बहुत साधुवाद और बधाई।

डॉ. मदन सैनी
विभागाध्यक्ष- हिंदी विभाग
मांगीलाल बागड़ी राजकीय महाविद्यालय,
नोखा (बीकानेर)