राजस्थानी में निर्मल वर्मा री कहाणियां / कुंदन माली

निर्मल वर्मा रो हिंदी कथा-संग्रै ‘कव्वै और काला पानी’ साहित्य जगत में घणो चर्चित अर प्रशंसित रैयो है अर साहित्य अकादेमी रो पुरस्कार ई इण माथै मिल चुक्यो है। अनुवाद ‘कागला अर काळो पाणी’ नाम सूं करियो है। इण में कुल सात कहाणियां सामिल है- ‘तावड़ै रो अेक टुकड़ो’, ‘दूजी दुनिया’, ‘आदमी अर छोरी’, ‘कागला अर काळो पाणी’ अर ‘अेक दिन रो पावणो’। पोथी माथै छपी टीप मुजब ‘अै कहाणियां भारतीय परिवेश नै उजागर करै अर साथै ई साथै यूरोप री जमीं सूं ई आपां री सांवठी ओळख करावै पण मानवीय संवेदना इण आंतरै रै थकां ई साबत रैवै। आपरै दौर री अै महतावू कहाणियां मन-मगज में ऊंडी उतरै, घणै बखत तांई आपां री ओळूं में रैवै अर इयां पण कथ सकां कै ओळूं री अखूट कूंट में सदीव खातर बस जावै।’
अेक सांतरै अनुवाद में मूळ रचनाकार रै भाव-संवेदन, अनुभव अर अनुभूतियां रै रचनात्मक सरूप नै लक्ष्य-भासा में उणरै संस्कारगत परिवेस, भासात्मक कलेवर अर अरथ-छाया नै इण ढाळै रूपांतरित करणो पड़ै कै वो अनुवाद कोई अनुवाद नीं लागनै उण भासा री मौलिक रचना इज लागै। अनुवाद री आरसी तो आ इज व्है सकै कै वो सुतंतर रचना ई लागै, दीखै अर मौजूद व्है। नीरज  दइया रै करिया थका इण अनुवाद री खूबी अर खासियत आ है कै इण में राजस्थानी भासा री रंगत, उण री निरवाळी छांट, मुहावरो, सबद-प्रवाह अर संस्कार रै बागा में यूरोपीय चरित्रां री मनगत, उणां रै जीवण री निजू समस्यावां, जूण री जटिलतावां अर विडरूपतावां नै सावळ ढंग सूं पेस करी है अर साथै ई साथै निर्मल वर्मा री कथा-सैली, तकनीक अर सिरजणाऊ संस्लिस्टता नै कायम राखी है।
क्यूं कै निर्मल जी खासा बरसां तांई यूरोप अर खास करनै चेकोस्लोवाकिया (अबार रो चेक गणराज्य) में रैय चुक्या है, सो उणां री कहाणियां रै चरित्रां में यूरोप रै जीवण री सुख समरिधि रै पांण पसर चुक्यै अकलपणै, अलगाव, जूण-निरथकता अर भटकाव रा दरसाव ठौड़-ठौड़ निगै आवै। भौतिक सुभीता रो अेक पाधरो अर असर जीवण रै खालीपण री सानीं करियां टाळ नीं रैवै (अलबत आ बात अचरज वाळी लाग सकै, पण है सांची) अर इणीं’ज सिलसिलै में ‘तावड़ै रो अेक टुकड़ो’ कहाणी री नायिका रो उल्लेख करियो जाय सकै, जिण नै यूं तो कोई बिखो कै दुख नीं है, पण इण रै कनै आपरो निजू कैवण नै ई कांई है? आधुनिक सुख-सुविधावां इज तो जूण नै कोई सारथक अरथ नीं देय सकै! वठै रा लोगबाग असल में जूण री रिंधरोही में भटकता थका इज निगै आवै है- अतीत रा असल अरथ नै सोधण वाळा, अेकला-अटूला। ओ आधुनिकता रो सराप कै अंधारपख इज तो है जठै कोई नीं तो किणीं रो साथी-साइनो है अर ना इज आसरो- ‘म्हैं तो अठै बैठी हूं ईज। थारै टाबर नै भाळती रैवूं। पछै अठै ठंड हुय जावै। आखै दिन म्हैं ओ देखती रैवूं कै तावड़ै रो टुकड़ो किण बैंच माथै है- उणी बैंच माथै जाय’र बैठ जावूं। पण आ बैंच म्हनै सगळा सूं चोखी लागै। अेक तो इण माथै पानड़ा नीं झरै अर दूजो.... अर, थे जावो हो?.. (पेज-14)
    अेक अरथ में देखां तो निर्मल वर्मा री कहाणियां में असल चरित्र अर पात्र तो परिवेस इज है अर जिका पात्र आं में आया है, वां में सूं चूकता ‘सर्वनाम’ म्हैं, थूं, वै, आपां इत्याद रै ढाळै इज आया है, संग्या रै रूप में नीं अर इण कथा-तकनीक रो मकसद है- विश्वजुध रै कारण बरबाद व्हियोड़ै यूरोपीय जनजीवन, वठा री पारिवारिक संस्था री छीजत अर खालीपण नै उजागर करणो। ‘दूजी दुनिया’ कहाणी आपरै संस्लिस्ट रूप में अेकै साथै यूरोप री अनगिणती री गुत्थियां नै पेस करै। ध्यान देवण री बात आ ई है कै आं कहाणियां में ‘पार्क’ अेक ‘स्थाई भाव’ कै ‘अंग’ है जिको कै मानो जूण रा चूकता आणंद, हुलास अर उछाव रो दूजो नांव है, पण बारीक दीठ सूं देख्यां ठाह पड़ै कै पार्क असल में घर-परिवार नांव री संस्था री कमी नै पूरी करण वाळो विकल्प है!
‘जिंदगी अठै अर बठै’ कहाणी में कथाकार दिल्ली जिस्सै महानगर री जिंदगी रै साम्हीं यूरोप वाळै लोगां री दिनचर्या रो खाको खैंच नै इण बात री सानीं करै कै मेकेनीकल जूण-परिवेस रै मामला में आपांरा महानगर ई कठै ई लारै कोयनीं। महानगरां में पईसा है, साधन-सुभीता है, सत्ता है, रौब-दाब है, पण आपसरी हेतभाव, संवेदनसील अपणायत, घर-गिरस्ती रो चैन-आराम, निरांत अर संतोस कठै है? ‘‘सुख? कांई कोई अैड़ी चीज है, जिण माथै आंगळी धर परा’र कैयो जाय सकै, ओ सुख है, आ तिरपती है? फेरू, अेक खंभै रै सायरै ऊभो हुयग्यो- बारै कनॉट प्लैस रो फबारो दीयाळी रै अनार-सो लागै हो- पररियै तावड़ै मांय धोळी फुहार ऊंचै नै उठै ही, नीचै नै पड़ै ही- ना, सुख हुवै कोनी, फगत हर कर सकां- खुद री पीड़ावां मांय- जद थां सोच्यो हो, उण रै गयां पछै थे इण शहर मांय नीं रैवोला। पण थे जीवो- सांस लेवो... आदमी री खालड़ी कित्ती पक्की हुवै।’ (पेज-47)
‘दिनूगै री घूमाई’ में बुढापै री अेकलता, मजबूरी अर लाचारी उजागर व्है, जठै मिनख रो कोई आसरो नीं, कोई सहारो नीं, कोई उपाव नीं, कोई परिवारजन नीं अर इसी बण जायां करै क्यूंकै फगत पईसा सूं इज तो कोई काम-काज नीं सरै। अठै करनल निहालचंद इस्यो इज पात्र है- जिण रो अंत अणूतो ट्रेजिक है- ‘निहालचंद रै गळै मांय डोरी फस्योड़ी ही अर डोरी रो पासो रूंख री डाळी सूं बंध्योड़ो हो। डाळी हिलै ही अर निहालचंद लटक रैया हा। हेठै घास माथै वांरो झोळो, बांरो थरमस, बां रो फौजी कोट पड़ियो हो, दोनूं जेबां उधड़ी पड़ी ही- नागी अर उथळी, अेकदम खाली। खट्‍-खट्‍-खट्‍... उण नै अजीब-सी आवाज सुणीजी, माथो ऊंचो करियो तद टाबरां रै कूदण आळी डोरी दीसी, चांदणी मांय हींडता दोय छोटा-छोटा पीळा बेलण, जिका डाळी रै हिलण सूं घड़ी-घड़ी निहालचंद रै हींडतै माथै सूं भिड़ जावता हा।’ (पेज-81)
‘आदमी अर छोरी’ कहाणी यूरोपीय जीवण में निगै आवता इस्या संबंधां री परख करै जिण रो कोई पक्कायत नांव नीं व्हिया करै क्यूं कै ठैराव रो मामलो वठै है इज कोनी, वठै तो फगत बैवता धारा रो नांव इज जिंदगाणी है जिण री कोई मजल कोनीं, कोई ठोस उणियरो कोनी। इण वास्तै वठै मिनख रै आपसरी संबंधां में पग-पग माथै बदळाव व्हेतो रैवै। संग्रै री सिरै कहाणी ‘कागला अर काळो पाणी’ खासी लांबी रचना है जिण में लेखक भारत रै पहाड़ी जीवण रै मिनख री अबखायां, बिखा अर पीड़ावां रो चितराम है। निर्मल जी रै चूकता चरित्रां री समस्यावां वां री निजू समस्यावां है, सामाजिक जाबक ई नीं अर यूं देखां तो ई निर्मल वर्मा सामाजिक प्रतिबद्धता सूं जादा वैयक्तिक चिंतावां सूं जुड़िया थका लेखक है। भरिया-पूरिया जूण-जगत अर सामाजिक परिवेस में जीवता मिनख रै वास्तै तो ओ माहौल असल में काळापाणी सूं कमती कोनीं क्यूं कै वो जड़ां सूं कटियो थको है। खासी संकेतात्मक है आ कहाणी। छेकड़ली कहाणी ‘अेक दिन रो पांवणो’ ई समकालीन मिनख रै भटकाव, संशय अर निरथकता नै रेखांकित करती कहाणी है।
कुल मिलायनै कैयो जाय सकै कै निर्मल वर्मा री अै कहाणियां राजस्थानी कथा-परिवेस रै जायका नै बदळण री सारथक खेचळ करै अर हिंदी कथा जगत सूं उण रै फरक अर समानता रा मुद्दा नै अरथावै। सांतरो, सुभट अर प्रभावी राजस्थानी अनुवाद करण में नीरज  दइया री मैणत अर प्रतिभा उजागर व्है।