अनुसिरजण – मूळ कविता रो भावाभिनय

नीरज दइया
            घणा रचनाकार इण पख नै पोखै कै सिरजण रो अर खासकर कविता रो उल्थो नीं हुय सकै। उल्थै खातर अनुसिरजण का रूपांतरण सबद परोटीजण री मनगत समझां।सिरै बात तो आ कै अनुसिरजण मांय असल सबद ‘सिरजण’ हुवै अर मूळ-आधार सिरजण ईज हुवै। मूळ सिरजण रै लारै-लारै पूगण री बात अर मूळ नै इधको मान देवण री बात अनुसिरजण पेटै सगळा स्वीकारै। ‘अनु’ रो अरथ दुबारा, पछै, लारै आद करीजै। मूळ भासा रै जोड़ मांय दूजी किणी भासा मांय दूसर सिरजण, सिरजण पछै रो सिरजण का कैवां कै सिरजण रै लारै-लारै उणी मनगत रो दूसरो सिरजण अनुसिरजण हुवै।
            म्हैं खुद सूं सवाल करूं- म्हैं म्हारी कविता छोड’र किणी दूजै री कविता नैड़ै क्यूं जावूं? म्हारो मानणो है कै अठै म्हारै ‘म्हैं’ री जागा म्हारो ‘काम’ महताऊ हुवणो चाईजै। ‘म्हारी कविता’ री जागा म्हनै ‘कविता’ महताऊ लखावै। कवि री मौलिकता इण मांय हुवै कै बो घणी सूं घणी कवितावां बांचै। किणी कविता पेटै म्हनै लागै कै आ म्हारी भासा में आवणी चाईजै तो अेक तरीको तो ओ है कै उण जोड़ री कविता रचूं। कोई कवि किणी कवि जिसी कोई रचना रचै, तो मौलिकता कांई हुवै? अर कोई कवि खोड़ क्यूं खुड़ावै? कवि अर मसीन मांय आंतरो हुवै। स्यात ओ ई कारण हुवैला कै कविता री सिरजणा तो जद-कद हुवै जद हुवै। दूजो तरीको है कै जिकी कविता नै दाय करूं उण नै म्हैं म्हारी भासा तांई लेय आवूं। आ मनगत अनुसिरजण री हुया करै। कविता नीं हुवण री वेळा अेक सुख किणी दूजी कविता मांय ऊंडो उतरणो हुय सकै। इण मांय अणमाप आणंद मिलै कै जिण कविता सूं हेत हुवै बा आपरी प्रीत म्हारी भासा मांय प्रगटै। अठै कैवणो लाजमी लखावै कै इणी प्रेम रै परताप ई उण मूळ कविता सूं केई बार अनुसिरजण इधको हुय जावै। नन्दकिशोर आचार्य री कवितावां पेटै तो आ बात केई कवितावां मांय देख’र आप ई साख भरोला। इण नै आप म्हारी भासा सूं म्हारो मोह ई कैय सको, पण म्हनै लागी जिकी बात कैयी।
            समकालीन भारतीय-साहित्य रा लूंठा अर वाजींदा नांवां भेळै मरुथळ री कीरत बखाणता नन्दकिशोर आचार्य जाणीजै। आखै हिंदी-जगत मांय राजस्थान सूं आपरो जस सिरै। मातभोम राजस्थान नै कविता मांय आदर देवणियै कवि री साहित्य-साधना उण मुकाम माथै पूगगी कै अबै किणी ओळख री दरकार कोनी, फगत आपरै नांव सूं जाणीजै। म्हारो ओ सौभाग कै म्हैं बाळपणै सूं कवि री रचनावां बांचतो आयो हूं। म्हनै आज ई चेतै आवै जद ब्लैक अेंड व्हाइट टेलीविजन रो जमानो हो अर दूरदर्शन रै कवि-सम्मेलन मांय आचार्यजी नै निरवाळै अंदाज मांय सुणण रो मौको मिल्यो। म्हैं कियां भूल सकूं कै मंचीय कवियां साम्हीं आ नवी कविता री जीत ही, बै ताळियां अर जूनो हरख आज ई म्हारै अंतस हेला करै। उण दिन रै कविता-पाठ रो असर कै कवि री बीजी रचनावां बांचण री हूंस जागी। म्हनै केई पोथ्यां तो म्हारै घरै ईज मिलगी। इण रो खास कारण कै म्हारा जीसा खुद कवि-कहाणीकार रूप चावा-ठावा हा। बां री निजू लाइब्रेरी सूं म्हैं घणै चाव बै पोथ्यां बांची।
            अठै म्हैं याद करणो चावूं मानजोग सूर्यप्रकाश बिस्सा नै कै बां री अपणायत रै पाण म्हनै केई-केई पोथ्यां बांचण रो सुख मिल्यो। बां दिनां सूर्य प्रकाशन मंदिर मांय हुई गोष्ठियां अर रचनाकारां सूं हुवण वाळी मेळ-मुलाकातां आजै ई अंजस री बात। नन्दकिशोर आचार्य री रचनावां सूं अेक कवि अर आलोचक रै रूप मांय नीं, म्हैं अेक पाठक रै रूप मांय प्रभावित रैयो। म्हारो संबंध अेक पाठक रै रूप में रैयो अर लगोलग आचार्यजी री साहित्य-साधना सूं म्हैं जुड़्यो रैयो।
            मोटो अचरज ओ कै आचार्यजी राजस्थानी में क्यूं नीं लिखै! जद कै राजस्थान रा केई हिंदी कवि-लेखक राजस्थानी में ई लिखै। इण बाबत म्हैं सवाल कर्यो। राजस्थानी रा पैला उपन्यासकार श्रीलाल नथमल जोशी बरसां पैली जद राजस्थानी भासा रै प्रचार-प्रसार में ‘मरुवाणी’ रा संपादक श्री रावत सारस्वत साथै जुड़्योड़ा हा तद री बात चेतै करतां नन्दकिशोरजी बतायो कै जोशीजी बां दिनां राजस्थानी में लिखण खातर घणो जोर दियो हो, पण बै आ बात अंगेज नीं सक्या। इणी भांत तेजसिंह जोधा ई घणी मनवार करी, तद विदेसी कविता रो राजस्थानी रूपांतरण नन्दकिशोरजी कर्यो जिको छप्यो ई। हिंदी कवि रूप जियां-जियां ओळख मिलती गई, नित बां साम्हीं राजस्थानी में रचाव रो अपणायत भर्यो नूंतो ई बधतो गयो, पण आचार्यजी राजस्थानी में लिखणो अंगेज नीं सक्या।
नन्दकिशोर आचार्य सदा सूं राजस्थानी रा हिमायती तो रैया अर निजू बात-बंतळ मांय घणी वेळा राजस्थानी परोटै। इण नै लेखक री ईमानदारी कैवतां बै बतावै कै लिखण में जिको संतोख अर सुख आतमा नै मिलै बो बां री दीठ मांय घणो जरूरी है। बां कैयो- म्हैं जिण भासा में सोचूं-विचारूं अर जिण मांय लिखतो रैयो हूं उण मांय ई खुद नै ठीक समझूं। आचार्यजी रो मानणो है कै अेक रचनाकार रूप जिण असल ऊरमा री दरकार किणी रचाव खातर हुवै, उण मांय विचार घणा महताऊ हुवै। जिकी भासा खुद रै चिंतन-मनन री हुवै उण नै टाळ बीजी भासा मांय अपरोगो लेखन दाय नीं आवै। इण बात नै इयां कैयी जाय सकै कै बां रो हिंदी लेखन अंग्रेजी लेखन करतां व्हालो है। हिंदी पेटै साहित्यकार नन्दकिशोरजी रो कमिटमेंट हो कै जिकी बातां खातर चरचा रैवती कै ओ काम फगत अंग्रेजी में हुय सकै हिंदी मांय नीं, बो काम आप हिंदी में कर दिखायो। जियां— ‘अहिंसा कोश’।
            म्हारो मानणो है कै किणी रचना मांय बुणगट अर विचार महताऊ हुवै, अनुसिरजण रै मारफत कोई रचना किणी ई भासा तांई पूग सकै। बीजी भारतीय भासावां रै रचनाकारां री केई पोथ्यां राजस्थानी मांय लावण रो सौभाग म्हनै आगूंच मिल्यो। जिकां री बरसां सूं आ चावना रैयी कै नन्दकिशोर आचार्य राजस्थानी में कविता लिखै, बां सगळा खातर ओ अनुसिरजण- ‘ऊंडै अंधारै कठैई’। आचार्यजी री नाटक माथै लिखी कवितावां बांचता म्हनै लखायो जाणै अनुसिरजण ई अेक भांत रो भावाभिनय हुवै। जिण ढाळै नाटक मांय कलाकार आपरै अभिनय सूं मूळ पात्र अर मूळ रचाव नै जीवै, ठीक बियां ई अनुसिरजण मांय म्हैं मूळ कवि अर कविता नै जीवण री पूरी-पूरी कोसीस करतो रैवूं। म्हनै इत्तै बरसां पछै जद लखायो कै हां अबै म्हैं म्हारै अंतस मांय कवि नन्दकिशोर आचार्य री साधना नै रचा-बसा ली है अर म्हैं खुद मांय कवि नै उतार सकूं, का इण ओळी नै इयां कैवूं—कविता रै अंतस खुद उतर सकूं... तद ई कलम सांभी।
            अठै म्हनै लोककथावां री दुनिया चेतै आवै। लोककथावां मांय परकाया प्रवेस री कथावां घणी चावी। कदैई-कदैई म्हनै लखावै कै मूळ रचना रै मारफत केई-केई रचनाकार अंतस मांय ऊंडा-ऊंडा उतर जावै अर म्हांनै अनुसिरजण खातर विवस करै। आ बात साव कूड़ी कोनी कै अनुसिरजण करती बेळा म्हारै मांय जाणै मूळ रचनाकार री कोई आतमा घुस जावै, अर जिको कीं म्हैं अनुसिरजण पेटै रचूं, बो असल मांय म्हैं नीं बा आतमा मतलब कै मूळ रचना रो रचनाकार ई रचै। अनुसिरजण मांय उण आतमा नै अंतस मांय रमावणी पड़ै। अंतस मांय इसी आतमावां नै रमावणो अर सिरजण री साख मांय अनुसिरजण करणो भावाभिनय नीं तो दूजो कांई है, इणी खातर अनुसिरजण नै म्हैं मूळ कविता रो भावाभिनय कैयो।
            ओ अनुसिरजण करतां दोय बातां म्हैं खास ध्यान राखी। अेक तो आ कै चावी-ठावी अर न्यारै-न्यारै पोत री कवितावां बानगी रूप ली जावै, दूजी बात कै बै कवितावां ली जावै जिकी आपणी भासा अर इण धरा री मनगत सूं जुड़्योड़ी है। अठै अेक बात भळै कैवणी लाजमी लखावै कै म्हैं मानूं कै हरेक कविता रो अनुसिरजण हुय सकै पण केई बार इण अनुसिरजण मांय मूळ कविता घणी लारै छूट जावै, सो इण ढाळै रै अनुसिरजण रो हिमायती म्हैं कोनी।
            ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ री कवितावां रो संचै-अनुसिरजण नन्दकिशोर आचार्य रै अबार तांई छप्या चवदै कविता-संग्रै— ‘जल है जहाँ’ (1980), ‘वह एक समुद्र था’ (1982), ‘शब्द भूले हुए’ (1987), ‘आती है जैसे मृत्यु’ (1990), ‘कविता में नहीं है जो’ (1995), ‘अन्य होते हुए’ (2007), ‘चाँद आकाश गाता है’ (2008), ‘उडऩा सम्भव करता आकाश’ (2009), ‘गाना चाहता पतझड़’ (2010), ‘केवल एक पत्ती ने’ (2011), ‘इतनी शक्लों में अदृश्य’ (2012), ‘छीलते हुए अपने को’ (2013), ‘मुरझाने को खिलाते हुए’ (2014) अर ‘आकाश भटका हुआ’ (2015) सूं करीज्यो है। इण संचै मांय कीं जूनी कवितावां कमती अर लारलै बरसां लिखीजी कवितावां बेसी लेवण लारै दीठ आ रैयी कै आप री पूरी काव्य-जातरा रो परिचै तो मिलै ई मिलै, साथै ई बगत-बगत माथै बदळती आचार्यजी री कविता रै मारफत हिंदी कविता रो ई पूरो अेक दीठाव मिलै। कवितावां रा लगैटगै सगळा रूप-रंग आप साम्हीं राखण री आ बानगी जाणो।
            म्हारी दीठ मांय नन्दकिशोर आचार्य री पूरी काव्य-जातरा री असल-कमाई किणी अरथ मांय ऊंडै अंधारै कठैई पूग’र आपरै बांचणियां साम्हीं अबोट साच लावणो मानी जावैला। इण ओळी नै दूजै सबदां मांय इण ढाळै कैय सकां कै बै ऊंडै अंधारै कठैई फगत पूगै ई कोनी, आप भेळै बांचणियां नै उण अंधारै रै लखाव मांय लेय’र जावै। आ अेक लोक सूं दूजै लोक री जातरा कैयी जाय सकै। जूनै रंगां साम्हीं नवा रंग, नवा दीठाव। आज पळपळाट करती इण दुनिया मांय कोई पण दीठाव सावळ-सावळ आपां अंधारै री दिसा सूं ईज देख-परख सकां।
अठै आ बात अखरा देवूं कै जरूरी कोनी आपां सगळां री दीठ इकसार हुवै। न्यारी-न्यारी कविता-पोथ्यां फिरोळतां म्हैं विचार करतो रैयो- किसी कविता ली जावै अर किसी छोडी जावै। बियां नन्दकिशोर आचार्य जिसा कवियां री कवितावां टाळणो, साचाणी बेजा अबखो काम हुवै। म्हारो मानणो है कै केई कवितावां री आब तो फगत मूळ भासा मांय ई मिलैला अर बां नै बीजी भासा मांय कर्यां, बा आब निजर नीं आवैला। अठै कीं आबदार कवितावां भेळी करण री कोसीस देखोला। आप आं कवितावां नै बांच’र मूळ कवितावां तांई पूगण री चावना करोला। अनुसिरजण रै मारफत जे मूळ पोथ्यां तांई पूगण री हूंस जागै तो ओ काम सवायो गिणूलां।
            कवितावां रै संचै अर अनुसिरजण सूं पैली खुद नन्दकिशोर आचार्य रै कर्योड़ा संचै अर न्यारी-न्यारी पत्र-पत्रिकावां रा आचार्यजी माथै केंद्रित अंक ई संभाळ्या। जियां— ‘संवेदन इति’ (1967), ‘चौथा सप्तक’ (1979), ‘बारिश में खंडहर’ (1996), ‘रेत राग’ (2002), ‘वाक्’ पत्रिका रो संचयन— ‘कवि का कोई घर नहीं होता’ (2009), ‘पचास कविताएँ’ (2011) आद। सगळा सूं इधकी बात कै ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ री पांडुलिपि त्यार कर्यां, सौभाग सूं खुद कवि नन्दकिशोर आचार्य सूं संचै-अनुसिरजण माथै लांबी विगतवार बंतळ करीजी। जिका सुधार अर बदळाव जरूरी हा बै कर्यां पछै ई आ पोथी आपरै हेताळू हाथां मांय पूग रैयी है। असल मांय म्हैं म्हारी बरसां ऊंडै अंधारै दब्योड़ी चावना इण संचै-अनुसिरजण रै मारफत जगजाहिर करी है। आ खेचळ कियां रैयी, इण रो फैसलो आप गुणीजणां माथै। 



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ऊंडै अंधारै कठैई (2016) संचै-अनुसिरजण : नीरज दइया
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर- 334003, पाना : 120, कीमत : 200/-
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