जूंण दांई फगत दोय ओळी री है कविता

आलोचक नीरज दइया री काव्यगत सोच: कैवणौ है वौ कैय लेवौ, ‘पाछो कुण आसी’
दुलाराम सहारण
       केई कैवै कै धीरज रै खूटणै रौ औ जुग है। पण ‘म्हैं परखणौ नीं चावूं- आप रौ धीरज, क्यूंकै म्हैं आगूंच जाणूं- आप रौ धीरज है आप मांय…’ पण कैवणिया तौ कैवै ई है कै धीरज तौ नित खूटै। कदास आ साची-सी लागै, क्यूकै आ तौ थे जाणौ ई हौ कै ‘दुनिया भींतां सूं भरीजगी’, अैड़ी थिति में धीरज कैड़ी थिति में है, जिकर री बात कोनीं। अर इणी बिचाळै धीरज परखण री म्हैं कदै-कदास सोच ई लेवूं। पण तद हाथूंहाथ ई मन मांय आ आवै कै धीरज रौ ठाह तौ खुदौखुद बगत आयां लाग जासी, कै पछै जद आप भचीड़ौ खासौ तद ठाह लाग जासी, पण साथै ई बैम हुवै कै जीयाजूंण में केइयां रै ‘भचीड़ौ लागै अर … ठाह ई नीं पड़ै’ तद के करीजै?
       म्हैं कवि हूं इणी कारणै इत्ती दोगाचींती में हूं। ब्योपारी कै नेता हुवतौ तौ अजै तांणी आप रौ धीरज कदास रौ ई पितायण लेवतौ। पण कवि तौ कवि ई हुवै। कवि कनै बळ हुवै कविता रौ। थे जांणौ ई हौ कै कवि री ‘कविता रै साथै ग्यान अर थावस तौ हुवै ई हुवै, साथै हुवै आखै रचाव अर बांचणियै मिनख री मनगत।’ अर थे इयां ई जांणौ, आ मनगत बांचनै म्हैं डांफाचूक हुय जावूं। बदळतै बगत नै झीणी-भांत निरखनै तौ और ई डांफाचूक हुय जावूं। क्यूंकै बदळतै बगत में प्रेम रा नवा खांचा घड़ीजै अर औ खरौ साच है कै प्रेम बावळौ कर सकै, ‘प्रेम ई कर सकै- साच साम्हीं हरेक नै आंधौ।’ तद बावळौ अर आंधौ करण रौ औ हथियार म्हैं म्हारी कविता में बरतूं कै नीं बरतूं? धीरज धरूं कै नीं धरूं? आ दिक्कताई है। म्हारी कविता म्हैं कठै सूं सरू करूं, आ ई दिक्कताई है। क्यूंकै मन अबै मन नीं रैया। घर अबै घर नीं। मन मिनख री ओळख हुवै अर ‘घर जीवण खातर हुवै/बेमन जीवणौ/आपरै घर मांय/मरणौ हुवै।’, पण ‘जीसा!/ थे बणायौ/ वौ घर अबै कोनीं/भाई कैवै- घर है।/इसै घर बाबत/म्हैं कांई कैवूं जीसा?’
       ओहौ! बत कठै सूं सरू हुयी ही अर कठै खुद रै तांण आय ऊभी हुयगी। थे ई म्हनै कैयसौ कै ‘खुद रौ स्वाद सगळां माथै मती थोप्या करौ।’ पण थे कैवौ भलांई, म्हारै में तौ ‘दाळ में पैलपोत कांकरौ जोवण री कुबाण पड़गी।’ अबै आ कुबांण ‘आलोचक’ में नीं पड़सी तौ किण में पड़सी? म्हैं कवि ई नीं, आलोचक ई हूं। आ तौ थे जांणौ ई हौ। अर पछै थे आ ई जाणता हुयसौ कै म्हारौ अठै धरम बणै कै इण कविता पोथी ओळाव कीं कांम आलोचना रौ ई कर लेवूं। तद ई तौ बात फबसी। पैलां केई सबदां री विगत जांण लेवां- ‘‘पोथी? आलोचना? कविता?’’
       अबै थै औ सवाल कर सकौ कै ‘‘केई मोटा-मोटा सबद अेकण साथै कियां? सगळी विगत अेकण साथै ई सूंपसौ के?’’ पण म्हारौ उथळौ ई सुण लेवौ- ‘फूल रै साथै कांटा अर डाळी तौ हुवै ई हुवै।’ पण आ ई समझौ कै वींरै साथै ई ‘हुवै वा आंख, जिकी जोवै रंग अर आखौ सैचन्नण संसार आपां रौ।’
इणी कारणै म्हारी वीं आंख सूं ई 70 जोड़ 16 इयांकै 86 पानां में 57 जोड़ 14 इयांकै 71 कैयीजती कवितावां मारफत थांनै जुग रौ साच दीखायसूं। ध्यांन राखजौ, आंख री बात करी हूं, आंख्यां री नीं!
हां, अबै कीं आंख रै चितरांम संू बारै आवां अर कविता रै जोड़ै बात करां तद ‘पैली विचार कर लो/ थे ओळखौ तौ हौ कविता…?’ कोनीं ओळखौ तद पछै पैलांपैल थे देखौ-समझौ कै कविता हुवै के है? आ समझ लेयसौ, तद पछैई म्हैं कविता करसूं। हां तौ समझौ-
       ‘कविता होवै- सबदां री अनोखी मुलाकात/ है आ आपसरी री बात…।’ पण आ आपसरी री बात कविता में इयां ई बण जावै, आ बात कोनीं, क्यूकै ‘किणी रै कैयां सूं कोनीं लिखीजै कविता…/ … बरसै तौ बरसै अर नीं बरसै…/…बरसां रा बरस कोनीं बरसै…/….किणी री मजाल कै अेक छांट ई बरसा लेवै बिना मरजी…।’ पण आ तौ थे ई जांणौ हौ कै ‘कविता लिखणौ/ किणी पूजा सूं कमती नीं है/ ना ईज किणी रौ/ भोग टाळण सूं कमती है।’,
पण औ ई अेक बीजौ साच है कै ‘ठावी ठौड़ मिलण री जेज है, किणी ओळी मांय मिलतां ई, वाजिब जागा खिलतां ई, बण जावैला कविता…।’ पण औ ई सै सूं लूंठौ तौ औ साच है कै ‘हरेक कविता, कविता कोनीं हुवै!’ औ म्हैं जाणूं। अर आ ई जांणूं कै सबद-सबद जोड़नै ई कविता राचीज सकै। पण सबद-सबद जोड़नै राचीजेड़ी कविता रै ओळै-दोळै म्हैं ‘क्यूं करूं म्हैं हिसाब…,’ क्यूंकै- ‘…अट्टा-सट्टा करीज सकै सबदां रा!’
       घणी बात क्यूं करां। क्यूंकै अबै तौ थारै कीं पल्लै पड़ी हुयसी? पड़ी तौ ठीक है, नींतर म्हारी आ बात तौ पल्लै लेय ई लेवौ कै म्हैं कविता क्यूं लिखूं?
       म्हारी बात सुणनै आप हांसौ? पण अेकर ‘हंसण री बात नै तौ जावण दां/ पण रोवण री टैम तौ रोवां/ असली रोवणौ, बस,/ इणी खातर, म्हैं लिखूं- कविता।’ पण म्हैं तौ कैवणौ चावूं खरी बात, वा आ है कै ‘कविता हिम्मत देवै।’ अर तद ई कवि कविता लिखै।
       आ हीम्मत कियां आवै, कविता रै बख पांण ई तौ। पण औ बख कठैई कुणई सीखावै कोनीं। थे ई जांणौ- ‘कविता कियां लिखीजै?/ इण माथै कोई किताब कोनीं।,/ कविता क्यंू लिखीजै/ इण माथै कोई जवाब कोनीं।’ पण म्हैं तौ इत्तौ जांणूं कै कवि ‘धूड़ माथै कविता’ ई लिख सकै अर धूड़ ई कविता लिख सकै। आ ई क्यूं खुद री बात करूं तौ ‘म्हैं धूड़ हूं/ लिखतौ रैवूं-/ धूड़ माथै कविता।’
       अबै म्हारी इण पोथी री कविता कांनी आवौ।
       ओहौ! कविता तौ टाळवीं ई है। मतलब गिणती री ई है। पण पछैई म्हैं सोचूं कै इण पोथी रै ओळाव जकौ कैवणौ है वौ तौ अबार कैय ई देवूं। दोय-च्यार ओळी में। खासकर कविता के हुवै अर कविता मांय के हुवै, इण पेटै तौ पक्कायत ई कैय देवूं। ‘आ कुण देखै’ कै वा कविता बणी कै नीं बणी, क्यूंकै औ तौ आकरौ साच है ई- ‘जे मानौ तौ/ हुवै कविता, कविता।’ अर नीं मानौ तौ हुवै फगत कीं सबद। पण कवि सारू तौ ‘कविता हुवण संू बेसी/जरूरी है आपरौ विचार/ कविता नै/कविता गिणनौ।’
       पण म्हारौ धरम लिखणौ है। हेलौ करणौ है। अर तद ई ‘म्हैं हेलौ करूं/हेला माथै हेलौ करूं/बारंबार करूं/दिन-रात करूं/मन-आंगणै करूं…।’
       क्यूं करूं आ ई सुणौ। इणी कारणै करूं कै ‘कदैई तौ सुणैला थूं!’
       मानता रै टोटै भलांई ‘बिना भासा रै/घूमा म्हे उभराणां!’ पण जद सुणैला तद फगत म्हारी मायड़ भासा राजस्थानी में ई सुणैला। अर अै हेला जोर सूं सुणैला क्यूकै म्हे ‘नित कटीजां/मांय रा मांय/दिन—रात चूंटीजां/बट—बटीजै जबान/इण गत रै पाण ई तौ/मांड राख्यौ है— /मरणौ…।’ मरणौ मांडेड़ा रा हेला री विगत तौ थे जांणौ ई हौ। म्हारी कविता री बात अेक पासौ धरौ, पण थे हेलौ सुणौ। ‘कविता सूं पैली जरूरी हुवै भासा री संभाळ’ अर म्हैं तौ अठै इण पोथी रै ओळाव ‘भासा री हेमाणी लियां ऊभौ हूं म्हैं…।’

 
पाछो कुण आसी/नीरज दइया/
सर्जना प्रकाशन, बीकानेर/2015/96 पेज/140 रिपिया