समय
ऐसा कभी नहिं रहा जिसने जीवन को प्रभावित न किया हो। ऐसा नहीं कि उल्लेखनीय जीवन
से प्रेरणा मिल सकती है। प्रेरणा अभाव-अभियोग में जिए गए जीवन से भी मिल सकती है,
बशर्त देखने की आंख स्वच्थ-स्वच्छ हो। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रेरणा जीवन की
विद्रूपता, विडंबना व विसंगतियों से मिलती है, लेने की कुव्वत होनी चाहिए। डॉ.
नीरज दइया द्वारा चयनित-संपादित राजस्थानी भाषा की अनुवाद कृति ‘सबद-नाद’ ऊपर कथित
बयान का साक्षी-दस्तावेज है।
मुट्ठी’क चावळां
में
तरसै मन
म्हारो...
झरै आंख्यां सूं
बेबसी रा मोती...
जे नीं लूंटा
गोदाम
तो जीवां
कींकर...
ये
कवितांश किसी व्याख्या की मांग रखते हैं। किस समाज में नहीं है पेट भरने की तरस,
कहां नहीं है बेबस समाज और जीने की हूंस। सच में कविवर वीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य
असमिया समाज के जिस भारतीय समाज का दर्द बयान किया है, बांग्ला कवि सुनील
गंगोपाध्याय की कविता में जीवन की लालसा को रेखांकित करता है। युवा कवि परिचय दास
माटी की खुशबू व कामगरों को मान देते हैं। वहीं उदार-बाजार नीति की परखचे उधेड़ते
हुए बताते हैं कि ‘बिकणो ही जुग री जरूरत है’ भोजपुरी कवि परिचय दास की कविता में
प्रीत-रीत, रिश्ता-नाता और संवेदना पर करारा व्यंग्य है।
ब्रजेंद्र
कुमार ब्रह्म की कविता ‘मरवरण रै नांव’ बोड़ो भाषा की कविता की राजस्थानी रंगत-भाषा
संस्कार दिया है अनुवादक डॉ. नीरज दइया ने। कविता का मूल सार- हियो समझै हियै रा
सबद। क्या बोड़ी में मरवण चरित्र पात्र है। उसका मूल नाअम कोई और हो तो परिचय सामने
आना चाहिए। डोगरी की पद्मा सचदेव वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रेम-क्रोध के बीच पिस
रही जिंदगी का बयान है। असल में यह बयान भारतीय समाज से लुप्त हो रही मानवीयता,
अपनापन, प्रेम व उल्लास की लोपता को उजागर करते हैं।
बतौर
बानगी ही हम उन भाषायी कविताओं को लें। ज्यों कन्नड़ देश के हालातों पर सवालियां
निशान लगाती है। वहीं पर अहसास कराती है गांधी आज भी प्रासंगिक है। मैथिली कविता
में जहां टूटती घर-गृहस्थी के दर्द को उकेरा है। मलयालम कवि विश्वास जगाता है-
चिमठींक प्रीत बदळै/ स्सौ कीं पाछौ मिळ सकै....
वहीं मणिपुरी कविता- टाबरां री छात्यां बणगी / सिपाहियां री खुराक.... / लुगाइयां
रा डीळ/ तलवार अर छुरी परखण री ठौड़... आदिवासी सामाजिक राजनीति का मर्मांत व
वेदना-संवेदना की गाथा है।
वस्तुतः
संचयनित अनूदित भाषायी कविताएं तत्संबंधि समाज की तासीर-तेवर का परिचयात्मक
दस्तावेज भर नहीं है। इस मिशन पर यह कहना उचित होगा कि प्रतिनिधि स्वर हैं।
यह
तथ्य कहीं भी उजागर नहीं होताअ है कि ‘सबद-नाद’ में अनूदित, चयनित कविताओं का मूल
भाषा स्रोत क्या है? यदि ये कविताएं मूल भारतीय भाषाओं से राजस्थानी भाषा में
अनूदित है तो राजस्थानी भाषा साहित्य जगत के लिए सुखद संकेत है कि इन्हीं भारतीय
भाषाओं ने राजस्थान की भाषा की रचनाओं को संप्रक्षेपित करने का सेतु-हेतु व साधक
मिल गया है। यदि अनूदित कविताएं हिंदी या अन्य किसी भाषा के जरिए भी राजस्थानी में
पेश हो रही हैं तब भी ये मूल राजस्थानी सी लगती है। दोनों ही स्थिति में डॉ. नीरज
दइया साधुवाद के पात्र हैं। अकादमी का धन-प्रयास बेकार नहीं गया है। कृति पठनीय है
आलोचकीय दृष्टि को परे रखें या साफ रखें, तब भी। अंतरपट में चंद्रप्रकाश देवल का
बतौर अनुवादक परिचय उसकी साख को ग्रसित करता है। क्यों जरूरी लगा यह समझ के दूसरे
छोर से तो यह बात समझ में नहीं आती है, परंतु अनुवाद-अकादमी को अंतरपट उठाकर सच
उजागर करना चाहिए कि यह पैबंद मक्खन की कारी-कुरपी अनुचित क्यों नहीं जान पड़ी।
सबद-नाद संग्रहणीय है।
श्रीलाल जोशी
सबद-नाद / विधा : अनुवाद / अनुवादक : नीरज दइया / प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर संस्करण : 2012 / मोल : 70 रिपिया।