प्रेम और जीवन के जागरण में ‘उचटी हुई नींद’

–नवनीत पाण्डे
नींद उचटती क्यों हैं और जब उचटती है तो उस समय मन में आने वाले भावों- विचारों के स्थूल भाव में देखते हुए ’उचटी हुई नींद’ का पाठ असंभव है, पाठक को निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि उचटी हुई नींद का आद्योपांत स्थूल चराचर से कोई लेना- देना नहीं है…..राजस्थानी के युवा सशक्त हस्ताक्षर कवि- आलोचक- सम्पादक  डॉ. नीरज दइया की बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित पहली हिन्दी काव्य कृति ’उचटी हुई नींद’ की कविताओं की सारी  अनुभूतियां बाहर से भीतर और भीतर से बाहर की यात्रा है और यह यात्रा इतनी सरल भाषा-शैली, शिल्प में किंतु सघन और आंदोलित करनेवाली है कि लगता ही नहीं कि यह कवि की पहली काव्य कृति है, इसकी झलक पहली ही कविता में देखिए…..
 ’शब्दों के नहीं,
होती है आंख कवि के
शब्द सपना नहीं देखते
जानते हैं आप
कवि देखता है सपना
कविता में कविता का
अपनी आंख को शब्दों की आंख बना कविता में कविता के सपने देखनेवाले नीरज दइया की हिन्दी कविता की दुनिया में ये पहली दस्तक ’उचटी हुई नींद’..की अधिकतर कविताओं की नन्ही- नन्ही मगर बहुत सघन अनुभूतियों की ऎसी झपकियां हैं, जिनका उत्स स्वप्न-यथार्थ के बीच उहापोहों की आंख- मिचौली है जिस में कवि-कविता, प्रेम के विराट- सूक्ष्म स्वरूप के साक्षात दर्शन होते हैं।
कवि की कलम में कविताएं रंगीन तितलियों सी आती है और वह बताती है कि कविता किसी कवि के नाम में नहीं.. कविता के अपने पाठ में होती है, पाठ भी ऎसा जिस में शब्द चित्र बनते जाते हैं जो पाठक की चेतना को जागृत करते हुए उसके समक्ष अपने समय के सत्य को उद्घाटित करते हैं। अर्थ के अथाह जंगल में बिखरे हुए कांटों, दलदल  उनके शब्दों का दल कवि को आमंत्रित करता है और वह इस आमंत्रण को चुनौती के रूप में स्वीकार करता है और कहता है,
       ’प्रेम पालता है देह को
      कविता चेतना को’ कविता और प्रेम के बीच जहां एक नए रिश्ते को जहां परिभाषित करता हैं और वहीं अपने समानधर्मी कवि- पिताओं की समग्र पीड़ा
         ’कभी सोचना-
         मेरे पुत्र के विषय में
         जिसे मैं
      बिना कविता के पसंद हूं’ में बेबसी के साथ अपने ही घर अपनी कविताई को कठघरे में खड़ा भी पाता हैं…
       ’कवि से हालचाल पूछने से बेहतर है
        उसकी जेब से कलम निकाल कर देखना……
        वह छूट गयी है किसी कविता के पास
      कुछ पंक्तियां लिखते हुए’ के माध्यम से एक कवि का अपनी कविता और अपनों से आत्म-संघर्ष को आसानी से महसूस किया जा सकता है। कवि की पीड़ा ही यही हैं अभी तक  उसे अभिव्यक्ति के लिए असरदार शब्द और शेष रह गए शब्दों को सुनने- समझने वाले सक्षम पाठकों की तलाश है..
’उचटी हुई नींद’ की कविताएं अपने ’समय का सत्य’ से भी नावाकिफ़ नहीं हैं। वे
       ’घुट घुट कर मरने से बेहतर है
         जिएं कुछ देर और….
        आंसुओं को पोंछ कर चुनें
      जिंदा कुछ सपने और..’का आह्वान करते हुए उस दयनीयता को भी सामने रखती है जिस में हर आदमी फ़ंसा दिखायी देता है
       ’मैं पहचानता हूं
       प्रार्थना के भीतर छिपी लाचारी..’ के साथ
      ’ठूंठ के हाथ डरते हैं
       जड़ों से
       और मेरे हाथ
      कुल्हाड़ी से..’ पंक्तियों में भावुकता भरी चोट में छिपी अपने समय की विद्रूपताओं को झेलते जाने का दर्द भी झलकता है। लेकिन यहां विशेष ध्यान देने और गौर करनेवाली बात यह है कि कवि के इरादे- संकल्प बहुत मजबूत हैं
       ’होता है तय हर फ़ासला
      मज़बूत इरादों से…’ का शंखनाद करता दिखायी देता है और इसी ज़ज़्बे की वकालत करते हुए बहुत ही सहज भाव से अपनी सीमाओं को स्वीकार भी करता है ..
     ’कुछ रह जाता है
      दृश्य से बाहर
      होते हुए भी ठीक सामने
      देख नहीं पाते हम उसे
      अक्सर देखते हैं वही
     चाहते हैं- जो देखना..’ सब कुछ विपरीत, नकारात्मक करने को आमदा वर्तमान में भी ’उचटी हुई नींद’ के कवि ह्रदय के एक कोने में एक अविरल संगीत के साथ प्रेम का स्रोता बहता-गाता है..
यहां यह देखना कवि के ह्र्दय में प्रेम की
’किसी शेर की तरह
दहाड़ता नहीं है प्रेम
वह पुकारता है
मोर की तरह..’
या
’जीवन में हमारे
आता है प्रेम बसंत की तरह’
मोर की तरह पुकारते, बसंत की तरह आते प्रेम के इस पहले पाठ में जैसे- जैसे प्रवेश करते हैं, पाठक अपने आपको प्रेम के सुकोमल अहसास के लोक में विचरण करता मह्सूसता पाता है…
        ’प्रेम के बिना
         नहीं खिलते फ़ूल
         कुछ भी नहीं खिलता
         बिना प्रेम के..’ सा कोमल अहसास लिए
        ’मीरा ने कहा था- घायल की गति
       घायल जाने के घायल जाने’ वाली पगडंडियों पर में चांद की साक्षी और  एकांत में प्रेम के स्पर्श के इंतज़ार में प्रेम की ठुडी पर तिल भर जगह की आकांक्षा पालते हुए
      ’प्रेम करने के लिए
      लगाए सात चक्कर..’ जैसी परीक्षाओं से गुजरने के लिए भी लालायित है और प्रिय से बहुत ही नई और मौलिक अठखेलियों के बिम्ब रचता है
     ’तुम सोती हो
      घोड़े बेचकर
      उन्हीं घोड़ों को लेकर मैं
निकलता हूं- ढूंढने तुम्हें…’ के आलोक में जहां मुग्ध है वहीं द्रवित और क्षुब्ध भी है कि
     ’समय से पहले का प्रेम
     और समय के बाद का प्रेम
     होता है कष्टकारक
     ठीक समय पर
    होता ही नहीं प्रेम’ प्रेम-काल के बारे में कवि की यह भी एक नई और मौलिक शोध है। और इस अहसास मात्र से ही डर जाता है,’प्रेम नहीं रहा जब मेरे भीतर/ तब मैं कैसे रहूंगा?…
वयस्कताएं स्नेह- प्रेम को किस तरह सीमाओं में बांध कर सोच को ही विकृत बना देती है, इसकी बिरला अभिव्यक्ति  गुड़िया: एक कविता की इन पंक्तियों से अभिव्यक्त होता है
      ’जिस गुड़िया से था
       प्यार बचपन में
       कितना निष्पाप था….
       अब पाप में
       दाग गिन भी नहीं पाता’ इसी प्रकार ’गुड़िया:तीन’ में
       ’अब बचपन जा चुका
       कहां छुपा सकता हूं तुम्हें- सिवाय मन के’ में एक पिता की विवशता का आख्यान है तो गुड़िया: चार में
       ’कब तक रहोगी
        किनारों से लिपटी तुम
        एक दिन तुम्हें
        छोड़ कर किनारे
         बीच भंवर
        आना ही होगा’ में जहां बेटी के प्रति एक पिता की पीड़ा दिखायी देती है। स्त्री को लेकर लिखी कविताओं में भी कवि   की स्त्री की स्थिति, यथार्थ देख चिंतित है
       ’दुखों के पहाड़ से दबी
        औरत को देखकर
        कोई नहीं कह सकता
        यह वही लड़की है…
        एक बार मर चुकी लड़की
       अब जीना चाहती है
       कि ज़िंदा रहे लड़की
      वर्ना औरत मर जाएगी..’में वह लड़की की अस्मिता- सुरक्षा के लिए सजग भाव से संकेत करता दिखता है। इसी तरह सम्बन्धों के ठण्डेपन- गरमाहट की परतों को
      ’किसी का होना
       सुख है
       किसी का नहीं होना
      सुख है’ जैसे बहुत ही महीन अद्वैत भाव के इस सुख में मिलन- विरह- मिलन जैसे भावों के झंझावतों के बीच से गुजरते हुए भी प्रेम को सर्वोपरि स्थान पर रखता है..
      ’उचटी हुई नींद के बाद
       जब लगती हैं आंख
       अटकी रहती हो तुम
       बाहर- भीतर’ नींद के उचटने- आंख लगने के इस प्रेम- खेल का आनंद सिर्फ़ वे ही ले सकते हैं जिनकी नींदे ऎसे उचटती हैं..
’उचटी हुई नींद की कविता से गुजरते हुए मुझे नीरज दइया द्वारा अपनी कविता में कहा गया ’बार- बार विवश मैं खोज- खोज कर भीतर से शब्दों को बाहर निकालता हूं एक के बाद एक .. साथ सजाता हूं और अंतत: कविता होती है।’ कथन बहुत सही और कवि का आत्मकथ्य लगता है.’उचटी हुई नींद’ सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के लिए’ बोधि प्रकाशन- जयपुर को बधाई व डॉ.नीरज दइया को मंगलकामनाएं!
  उचटी हुई नींद (कविता संग्रह) नीरज दइया / आवरण: रामकिशन अडिग
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर (राजस्थान) / संस्करण: दिसम्बर, 2013 / मूल्य: 60/- ई-मेल: bodhiprakashan@gmail.com / ISBN : 978-93-83878-10-9