101 राजस्थानी कहानियां (संपादक : डॉ. नीरज
दइया)ISBN : 978-81-938976-8-3 प्रकाशक : के.एल.पचौरी
प्रकाशन, 8/ डी ब्लॉक, एक्स इंद्रापुरी,
लोनी,गजियाबाद-201102 प्रकाशन वर्ष : 2019 / पृष्ठ
: 504 / मूल्य : 1100/-
प्रत्येक भाषा का अपना अलायदा मुहावरा
होता है। भाषा छाटी या बड़ी नहीं होती, दुनिया के किसी भी हिस्से में बोली जाने वाली भाषा की एक संस्कृति की
प्रतिनिधि पैरोकार होती है। भारतीय भाषाओं की बात करें तो यहां अनेक भाषाएं सदियों
से प्रचलन में हैं। इन्हीं भाषाओं में से एक है- राजस्थानी भाषा। यह अपने अनुभव की
व्यापकता को राजस्थानी संस्कृति से जोड़ने का काम निरंतर करती रही है। भारत में
प्रचलन में रही भाषाओं में अपना वजूद बढ़ाती हुई राजस्थानी भाषा दुनिया के लगभग सभी
क्षेत्रों में बोली और बरती जाती है।
राजस्थानी भाषा का साहित्य-संसार भी
बहुत प्राचीन है,
राजस्थानी के आधुनिक साहित्य की बात करें तो इसमें विभिन्न
विधाओं में लगभग समान रूप से वर्तमान में लिखा जा रहा है। साहित्य में कहानी विधा
प्रारंभ से ही लोकप्रिय विधा रही है। अगर हम राजस्थानी कहानी की बात करें तो लगता
है कि राजस्थानी कहानी के माध्यम से स्वयं लोक प्रकट हो रहा है। पिछले दिनों डॉ.
नीरज दइया के संपादन में एक सौ एक राजस्थानी कहानियां हिंदी में एक साथ पठने को
मिली। राजस्थानी कहानी को और अधिक पाठकों तक पहुंचाने का डा. नीरज दइया का यह
प्रयास उल्लेखनीय एवं सराहनीय है। इससे जहां एक और राजस्थानी भाषा के मान्यता-आन्दोलन
को बल मिलेगा, वहीं राजस्थानी कहानी की मठोठ, शिल्प, संवेदना और शैली
को जानने का अवसर राजस्थानी से इतर पाठकों एवं ऐसे आलोचकों को मिल सकेगा जो भारतीय
कहानी पर बात करना चाहते हैं।
डॉ नीरज दइया के इस उम्दा प्रयास ‘101 राजस्थानी कहानियां’ से राजस्थानी में लिखे जा रहे साहित्य के
साथ-साथ राजस्थानी-संस्कृति को समझने का भी अवसर मिलेगा। कथा साहित्य में
अभिव्यक्त जीवन में लोक और लोक-संस्कृति एक दूसरे से बेहद करीब नजर आते हैं!
राजस्थानी कहानी के परिवेश की बात करें तो यह अपने विविध सांस्कृतिक पक्षों को
उजागर करती दिखाई देती है। ‘101 राजस्थानी कहानियां’ कृति में डॉ. नीरज दइया ने विभिन्न आयु-वर्ग और कहें
पीढ़ियों के कहानीकारों को एक साथ स्थान देकर समग्र कहानी को जानने समझने का सुवसर
दिया है, साथ ही साथ वे पाठकों को यह बताने में भी सफल रहे हैं कि राजस्थानी कहानी
की यात्रा वर्तमान तक किस और किन किन तरह के बदलावों के साथ यहां तक पहुंची है। वर्तमान
में भारतीय कहानी के समानांतर राजस्थानी में क्या कुछ बदलाव आएं हैं वे भी यहां
नजर आ रहे हैं।
कहानी-यात्रा के विभिन्न पड़ावों से पाठक रू-ब-रू होता है। दशकवार आकलन करें तो यहां विविध दशकों की सीधे-सीधे पड़ताल
तो नहीं किंतु इस चयन में यह अंतर्निहित है कि विविध दौर में समय के साथ पहले की
राजस्थानी कहानी और आज की राजस्थानी कहानी में काफी कुछ अंतर आया है!
कहानी के पाठकों को यह राजस्थानी
कहानियों का समुच्चय नया पाठक वर्ग भी दे सकेगा। बहरहाल इस तरह के आंशिक और छोटे
स्तर पर प्रयास पहले भी होते रहे है। किंतु 101 कहानियों का यह एक साथ पहला और उल्लेखनीय प्रयास है। राजस्थानी कहानियों के
संपादन की बात करें तो डॉ. नीरज दइया से पहले 1976 में रावत सारस्वत और रामेश्वर दयाल श्री माली के संपादन में मूल राजस्थानी
में ‘आज रा कहाणीकार’ पुस्तक साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई थी। इन संपादकों के विचारों और डॉ.
नीरज दइया के संपादकीय में अभिव्यक्त विचारों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता
है। दोनों ही पाठकों को अपने अपने स्तर पर कुछ सोचने-समझने के अवसर के साथ पाठक की
दृष्टि को मांजते हैं। इस साझा संकलन की भूमिका में रतन सारस्वत का मानना है कि
उन्नीसवी शताब्दी के बाद और हिंदी के प्रवेश के साथ राजस्थानी की रचनाएं दीन-हीन
अवस्था में पहुंचने लगी थी, डेढ सौ वर्षों की इस दीन-हीन दशा ने राजस्थानी भाषा-साहित्य
के स्वरूप को समाप्त करने का काम किया। कारण था कि आज की राजस्थानी कहानी को दूसरी
विधाओं के साहित्य की तरह अपनी पुरानी परिपाटी से अलग नया मार्ग बनाना पड़ा। यह
मार्ग राजस्थान की घटती जा रही पहचान रखने वाले पावों से नहीं बना... बल्कि
विचित्र पांवों की विचित्र चाल से बना। और अपने साथी सम्पादक जैसे विचार रखते हुए
अपनी टिप्पणी में रामेश्वरदयाल श्रीमाली ने लिखा- आज हम जिस कहानी की बात करते हैं
और आज की कहानी के आस-पास प्रत्याशा से हिंदी और हिंदी में भी प्रेमचंद की कहानी
के प्रभाव से राजस्थानी कहानी आस-पास पसरी हुई है। इसी जमीन की हवा के मुताबिक
आजादी की लड़ाई के जन-जागरण के साथ-साथ देश की सारी भाषाओं के साहित्य की तरह
राजस्थानी भाषा और इसके कथा साहित्य ने भी आलस्य तोड़ा था, इसके बावजूद वह अगले कई वर्षों तक उनींदा-सा ही पड़ा रहा।
इसी भांति ठीक 39 वर्षों बाद के एन बी टी से 32 राजस्थानी कहानियों का संकलन ‘तीन बीसी पार’ नंद भारद्वाज के संपादन में 2015 में प्रकाशित हुआ, जिसमें बहुत करीने से नंद भारद्वाज ने हिंदी के आलचकों की तरह इन कहानियों का
मूल्यांकन पाठकों के भरोसे छोड़ दिया। वैसे किसी भी रचना का मूल्यांकन पाठक ही किया
करते हैं परंतु आलेचक की राय साहित्य में बहुत महत्त्व रखती है। 39 वर्षों पूर्व रावन सारस्वत और रामेश्वर दयाल श्रीमाली के जो
टिप्पणी अपनी भूमिका में अपने तरीके से लिखी है। उसका ‘तीन बीसी पार’ में नंद
भारद्वाज अपनी टिप्पणी में उल्लेख देते हुए लिखा है कि इस तीसरी बीसी के जिन समर्थ
और प्रतिभाशाली कथाकारों की कहानियां इस संकलन में शामिल की गई हैं, उनकी कथा-यात्रा
और कहानियों के बारे में अभी कोई मूल्य निर्णय देने की जल्दीबाजी मुझे उचित नहीं
लगती है। उनकी रचनाशीलता के अन्तस्त्रों को समझना बेहद जरूरी है। मेरी यही राय है
कि फिलहाल ऐसी प्रतिनिधि कथाओं का चयन करना और उन्हें पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत
कर देना पर्याप्त है। यह निर्णय पाठक की सुरूचि और उसके पर ही छोड देना बेहतर है
कि वे दूसरी भारतीय भाषाओं की कथा-यात्रा में उन्हें कहा खड़ा पाते है। यह ठीक वैसा
है कि साथ ले जाकर बीच सडक में छोड़ देना की वह अपना मुकाम खुद तय करें। तीन बीसी
पार का महत्त्व इसलिए अधिक है कि इसका मूल राजस्थानी के बाद हिंदी अनुवाद भी एन बी
टी ने इसी नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित किया है।
यादवेंद्र शर्मा ‘चंद’ ने राजस्थानी
कहानियों को हिंदी पाठकों के लिए ‘कालजयी कहानियां’ 20 कहानियों और राजस्थानी की ‘प्रतिनिधि कहानियां’ में 17 कहानियों के साथ प्रकाशित किया। नंद भारद्वाज के संपादन से
पहले 2007 में तथा 2015 में
हिंदी में तीन बोसी पार आया था और अब 2019 में संख्यात्मक दृष्टि से इन दोनों संकलनो को आगे बढ़ाने की बात करते हुए डॉ. नीरज
दइया ‘101 राजस्थानी कहानियां’ का वृहत संकलन तैयार किया है, हालांकि
अधिकतर कहानीकार डॉ. नीरज दइया के इस 101 कहानीकारों में शामिल दिखायी देते हैं परंतु नीरज अपनी टिप्पणी में लिखते हैं-
मेरी कोशिश रही है कि राजस्थानी की उल्लेखनीय एवं विशिष्ट कहानियां हिंदी के विशाल
पाठक समुदाय तक पहुंचे। साथ ही आलोचकों का ध्यान भी उन पर जाए ताकि उन पर सार्थक
चर्चा और विमर्श हो सके। डॉ. नीरज का आश्य इस सकंलन के माध्यम से राजस्थानी कहानी
को हिंदी और भारतीय भाषाओं की कहानी के बीच खड़ा करने का रहा है। डॉ. नीरज 101 राजस्थानी कहानियों के हिंदी अनुवादों के माध्यम से भारतीय
कहानी के मध्य कहानी के विकास में राजस्थानी कहानी का अवदान और सामर्थ्य साथ रखना
चाहते हैं, मूल्यांकन की स्थितियां ऐसे प्रयासों से ही संभव हो सकेंगी। संभव है कि
इस प्रयास से राजस्थानी की अनेक कहानियां अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद के द्वारा
पहुंच कर राजस्थानी की महक को गुलजार करे। बिना किसी संस्थागत सहयोग से 101 कहानियों का 504 पेज का संकलन हिंदी पाठकों के समुख रखना अपने आप में महत्त्वपूर्ण और प्रेरक
है। इसमें विभिन्न कहानीकारों के साथ महिला कहानी लेखक को भी उचित प्रतिनिधित्व
दिया गया है तथा सभी पीढ़ी के रचनाकारों पर व्यवस्थित रूप से चर्चा करने का ईमानदार
प्रयास है।
डॉ.
नीरज दइया हिंदी और राजस्थानी के समर्थ और प्रतिभाशाली रचनाकार हैं। सृजन और
अनुसृजन में उनकी समान गति है। इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दौर में वह मौलिक लेखन के
सशक्त हस्ताक्षर के साथ-साथ सहोदरा भाषाओं- हिंदी और राजस्थानी के मध्य सेतु बनकर
उभरे हैं।
दुनिया इन दिनों के प्रधान संपादक और
कवि-आलोचक डॉ.सुधीर सक्सेना की फ्लैप पर लिखी इन बातों से सहमत हुआ जा सकता है कि नीरज
ऐसे आलोचक हैं, जो संकोच या
लिहाज में यकीन नहीं रखते। वह खूबियां गिनाते हैं, तो खामियां भी बताते हैं। उनका यकीन खरी-खरी अथवा दो टूक
है। उनके लिए ‘थीम’ भी मायने रखती है और सलूक भी। वह रचनाकार के सलीके को भी
नजरअंदाज नहीं करते। वह अपनी बीनाई (दृष्टि) से चीजों को परखते हैं। उनके लिए
शिल्प और संवेदना मायने रखते हैं, तो
प्रयोगधर्मिता भी समय के यथार्थ से जुड़ना और उससे मुठभेड़ के साथ-साथ प्रासंगिकता
को वे महत्त्वपूर्ण मानते हैं। गौरतलब है कि हिंदी की पहली और राजस्थानी की प्रथम
कहानी लगभग असपास ही लिखी गई। शिवचंद भरतिया की 1904 में लिखी पहली कहानी के बाद
लगभग एक सदी में राजस्थानी की कहानी ने बहुत कुछ सार्थक अर्जित किया है। सरकारी या
गैर सरकारी संरक्षण की न्यूनता के बावजूद उसने गतिरोधों से उबरकर अपना रास्ता
तलाशा और पहचान अर्जित की। नीरज दइया की यह कृति राजस्थानी कहानी को जानने-बूझने
के लिए राजस्थानी समेत तमाम भारतीय पाठकों के लिए अर्थगर्भी है। नीरज बधाई के
पात्र हैं कि अपनी माटी के ऋण को चुकाने के इस प्रयास के जरिए उन्होंने राजस्थानी
कहानी को वृहत्तर लोक में ले जाने का सामयिक और श्लाघ्य उपक्रम किया है।