ओळूं, सुपनां अर जूझ रो सांगोपांग मंडाण / डॉ. मदन गोपाल लढ़ा

हवा, पाणी अर धरती दांई जिकी चीजां नैं बचावण री दरकार लखावै बां मांय ‘कविता’ ई सामल है। साहित्य री सगळा सूं जूनी अर चावी विधा कविता रो इतिहास मिनखपणै री हिमायत रै दाखलां सूं भरियो-पूरो है। जुगां सूं कविता मिनख रै अंतस सूं घणी नैड़ी विधा है। मानखै रा सुख-दुख अर जीयाजूण री जूझ रो मंडाण कविता मांय हुयो है। जोर-जुलम अर सामाजिक बिडरूपतावां रै खिलाफ कविता सगळा सूं पैली गूंजी है। साचाणी कविता इण जगती नैं सोवणी बणावण री आफळ है। कविता नैं बचावण रो मतळब है मिनखपणै नैं बचावणो। देस रा चावा हिंदी कवि डॉ. संजीव कुमार री कवितावां मांय आपां इण आफळ नैं पड़तख देख सकां। डॉ. संजीव कुमार री लांबी कविता जातरा सूं टाळवीं कवितावां रै डॉ. नीरज दइया रै राजस्थानी अनुवाद नैं बांचता आ बात सुभट प्रगट हुवै कै बै कविता माथै कित्तो पतियारो राखै। आं कवितावां मांय कवि रै लूंठै अनुभव री ओप प्रगटै बठै ई ओळूं, सुपनां अर जूझ रो बिसवासू सांगोपांग मंडाण ई ध्यान खींचै।
            ‘खिड़की सूं आवतो उजास / आपां नैं जोड़ै दुनिया सूं’ (किंवाड़) ओळूं सूं कवि री मनगत ठाह पड़ जावै। अेकलपा री त्रासदी नैं भोगतो आज रो मिनख आप रै आखती-पाखती रै परिवेस सूं जाबक कटग्यो। महानगरीय जूण मांय आ समस्या घणी विकराळ हुयगी जठै बारणां बंद कर जीवणियो मिनख आपरै ओळै-दोळै सूं कोई तल्लो-मल्लो नीं राखै। अर्थप्रमुख जूण मांय भाजतो आदमी मसीन दांई जीवै। भोर सूं आथण दांई बेसी सूं बेसी धन कमावण री लालसा इत्ती बधगी कै समंध-सगपण ई खूंटी टंगग्या। ‘आपणा घर’ सिरैनांव री कविता में कवि लिखै- ‘लोग घर री च्यार भींतां मांय / जोवै सुख / आपसदारी रो निकळग्यो दम / मिल’र कोनी बांटै / सरदी, गरमी अर बसंत।’
            प्रकृति सागै बेलीपै रै पाण ई संवेदणा री बेल पळै-पनपै। धरती, दरखतां, पंखेरूवां सूं हेत-अपणायत राख्यां ई मिनख रो तन-मन नीरोग रैवै। प्रकृति माइत दांई आखी मिनखाजूण नै पाळै। हरियळ धरती रो दरसाव ई मन नैं मोद सूं भर देवै। आं कवितावां मांय कवि प्रकृति नैं केई-केई रूपां मांय देखै-परखै अर आपरै ढंग-ढाळै परोटै। ‘फूल’ कविता री बानगी बांचण जोग है- ‘नित लगावूं / खुद रै घर-आंगणै / अेक नुंवै फूल री बेल / जिण सूं थूं रैय सकै / म्हारै पाखती / किणी पण रूप मांय।’
            ओळूं री अंवेर इण संग्रै ‘घिर घिर चेतै आवूंला म्हैं’ रो मूळ सुर कथीज सकै। कवि आपरै जीवण री खटमीठी ओळूं-गांठड़ी नैं घणी सुथराई सूं आं कवितावां मांय राखै। असल मांय कोई कवि-मन ओळूं सूं अळघो रैय ई नीं सकै। कवि सारू तो ओळूं रचाव री प्रेरणा बणै। चोखो-माड़ो भुगतेड़ो बगत ओळूं रै मिस कवितावां मांय सरजीवण हुय जावै, जिणरो पाठ कविता बांचणियां नैं ई नुंवो अनुभव सूंपै। आं कवितावां री अनुगूंज लांबै बगत तांई आपां रै मन-मगज मांय बणी रैवै। ‘दिल रै खुणै मांय / अंधारै रै ओलै बैठी / कीं ओळूं / चाणचकै ही / हुय जावै आम्हीं-साम्हीं / अर मन रै अंधारै सूं / निकळ’र बैठ जावै / जियां साम्हीं आरसी मांय।’ (अंधारै रै ओलै बैठी ओळूं)
            अेक संवेदनशील कवि लुगाई जात री जूझ नै कींकर बिसरा सकै। असल में लुगाई री आखी जूण ई जगती रै फूटरापै अर भलै सारू अरपण हुवती रैवै। घर-गवाड़ी री धुरी लुगाई टाळ भळै दूजो कुण हुवै? मा, जोड़ायत, बैन-बेटी जैड़ै न्यारै-न्यारै रूपां मांय लुगाई परिवार सारू आपरो आखी जूण होम देवै। आखै दिन खटतां थकां ई बा सदीव मुळकती रैवै अर ओळमो देवण सारू जबान कोनी खोलै। ‘पैंताळीस पार री लुगायां’ कविता मांय कवि लुगाई जात री जूझ नै इण आखरां मांडै- ‘टाबर जणै / टाबर पाळै / खुद री इंछावां नैं / आगीनै न्हाखै / अस्टपौर खटती रैवै / सगळा नैं संजोरा बणावण मांय।’
            इण धरती माथै भगवान सोधणा हुवै तो मा रै रूप मांय मिलैला। मा री ओळूं नैं अंवेरती केकवितावां इण पोथी मांय सामल करीजी है जिकी सीधी अंतस मांय बस जावै। ‘म्हारै घरै / अजेस ई है / सबद-कोस / जिण नैं म्हारी मा मोलायो।’ (सबद-कोस) अर ‘मा री फोटू / अबै पूजाघर मांय है- / अर ओळूं-आरसी माथै / छप्योड़ी / ठाह नीं कितरा चितराम / चेतना मांय अर / अबै चेतना मांय / बा रैवै सदीव।’ (मा रो रूप) जैड़ी ओळ्यां दाखलै रूप देख सकां।
            कवि प्रीत रै रंगा नैं केई रूपां मांय ढाळै। त्याग अर समर्पण सूं आं रंगां री ओपमा केई गुणा बध जावै। अठै देह रै भूगोल रो बखाण कोनी, आतमा रो उजास है, जिण नैं बिसरायां ई कोनी बिसरा सकां। संग्रै री सिरैनांव कविता ‘घिर घिर चेतै आवूंला म्हैं’ री बानगी सबळी-सांतरी है- ‘जद कद ई थूं / दिनूंगै री ताजगी मांय / करैला फिरा-घिरी / किणी घास रै मैदान मांय / तद बण’र ओस रो टोपो / चिप जासूं / थारै पगां रै / अर थूं मैसूस करैला / खुद रै डील मांय झुरझुरी दांई।’ कैवण री दरकार कोनी कै अैड़ी कविता रै आत्मीय पाठ सूं बांचणियां रै मन मांय ई झुरझुरी हुया बिना कोनी रैवै। कविता रै नांव माअथै नारां अर मोटा-मोटा बोलां रै हाकै बिचाळै अैड़ो अपणायत सूं हबोळा लेवतो सुर जीव नै थावस देवै।
            नामी कवि अर आलोचक सागै डॉ. नीरज दइया अेक संजोरै अनुवादक री ओळखाण ई लारलै बीस बरसां सूं लगोलग करावतां रैया है।  अमृता प्रीतम री पंजाबी काव्य-कृति ‘कागद अर कैनवास’ (2000), निर्मल वर्मा रै हिंदी कहाणी संग्रै ‘कागला अर काळो पाणी’ (2002) मोहन आलोक रै कविता-संग्रै रो हिंदी अनुवाद ‘ग-गीत’ (2004) पछै चोबीस भारतीय भाषावां री कवितावां ‘सबद-नाद’ (2012) आपरै जस नै बधावै। भोलाभाई पटेल रै गुजराती यात्रा-वृत ‘देवां री घाटी’ (2013), डॉ. नन्दकिशोर आचार्य री टाळवी कवितावां ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ (2016) अर सुधीर सक्सेना री टाळवी कवितावां रो राजस्थानी अनुसिरजण ‘अजेस ई रातो है अगूण’ (2016) जैड़ी पोथ्यां डॉ. नीरज दइया रै अनुवाद कारज रा लाखीणा मोती है। आप भारतीय भासावां री रचनावां री सौरम नै जठै मायड़ भासा मांय लावण रो जसजोग जतन करियो बठै ई राजस्थानी री रचनवां नै हिंदी मांय लेय जावण पेटै कारज ई सरावणजोग कैया जावैला।
            ‘घिर घिर चेतै आवूंला म्हैं’ पोथी री कवितावां नैं बांचता थकां भळै आ बात पुखता हुवै कै अेक कवि ई कवितावां रै अनुवाद मांय न्याव कर सकै। कविता री ऊंडी समझ अर भासा माथै सबळी पकड़ रै कारण अै कवितावां सांचाणी मूळ कवितावां जिसो आनंद देवै। डॉ. संजीव कुमार री कवितावां अनुसिरजण रै मारफत राजस्थानी मांय आवणो किणी अेक खिड़की सूं उजास रै आवण जिसो है। इण खेचळ सारू कवि डॉ. संजीव कुमार अर अनुसिरजक डॉ. नीरज दइया नै घणा रंग।

-डॉ. मदन गोपाल लढ़ा