मदन
गोपाल लढ़ा
‘देवां री घाटी’ भोलाभाई पटेल के गुजराती यात्रा-संस्मरणों
की साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत पुस्तक ‘देवोनी घाटी’ का
राजस्थानी अनुवाद है। डॉ. नीरज दइया ने हिंदी और राजस्थानी भाषा में विविध विधाओं
में लेखन किया है वहीं अनुवाद के माध्यम से परस्पर भाषाओं को जोड़ा भी है। यह पुस्तक
साहित्य अकादेमी की अनुवाद योजना के अंतर्गत प्रकाशित हुई है। उल्लेखनीय है कि
साहित्य अकादेमी ने पिछले कुछ वर्षों में अनुवाद के क्षेत्र में उम्दा कार्य किया
है।
आधुनिक साहित्य में गुजराती के भोलाभाई
पटेल एक महत्वपूर्ण रचनाकार के रूप में पहचाने जाते हैं। गुजराती भाषा के माध्यम
से उन्होंने भारतीय साहित्य में अपना मुकाम हासिल किया है। आलोचना, यात्रा-संस्मरण और निबंध विधा को समर्ध
कर भोलाभाई ने भारतीय भाषाओं के मध्य गुजराती का यशवर्द्धन किया है। पटेल की ‘देवोनी घाटी’ के अलावा पूर्वात्तेर, देवात्मा हिमालय, विदिशा, कंचनजंघा, शालभंजिका, अधुना, पूर्वापर अर अज्ञेय: एक अध्ययन जैसी
कृतियां खूब चर्चित रही हैं। ऐसे समर्थ गद्यकार की पुस्तक का राजस्थानी में आना
बहुत हर्ष का विषय है। कितना अच्छा रहता यदि यह पुस्तक अपने प्रकाशन के वर्ष से एक
वर्ष पहले अर्थात भोलाभाई पटेल के रहते प्रकाशित होती। रचनाएं ही हैं जो लेखक को
सदा सदा के लिए जिंदा रखती है। देह के बाद भी उनके शब्द बार-बार जीवन पा कर हमारे
पाठ में सजीव होने का अहसास देते रहते हैं।
यात्रा-संस्मरण आधुनिक साहित्य की विधा
है, जो गत वर्षों में खूब फली-फूली है। संपूर्ण दुनियां की विविधरूपा संस्कृति और
परिवेश से साक्षात्कार करावने के लिए यह विधा बेहद महत्वपूर्ण है। भारत जैसे
बहुरंगी संस्कृति और अलग-अलग रंगों-वर्णों के देस के अंतस को जाणने-समझने के लिए
यात्रा-संस्मरण कीमीया साधन मान जा सकता है। अनूदित पुस्तक ‘देवां री घाटी’ इस बात की साक्षी है। इस पुस्तक में
हिमाचल प्रदेस, कर्नाटक,
केरल आदि प्रांतों की यात्राओं का ऐसा
सरस वर्णन हुआ है कि पाठक को इसके पाठ में लेखक के साथ-साथ घूमने का आनंद आता है। यात्रा-संस्मरण
की इस पुस्तक में लेखक डायरी और पत्र जैसी विधाओं के मनभावन प्रयोग से जैसे नए रंग
भरता है जिससे इसका पाठ पाठक के लिए एक यादगार अनुभव बन जाता है। इस यात्रा में लेखक
सिर्फ सूचनाओं तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि कला, साहित्य, धर्म, दर्शन, इतिहास, भूगोल आदि की रोचक और मोहक बातों से संस्मरण
में सतरंगी आभा रचता है। भारतीय भाषाओं के प्रख्यात लेखकों और साहित्य के जो
उदाहरण पुस्तक में आए हैं वे एकदम अबोट है और साहित्य-रसिक पाठकों के लिए बेहद
महत्वपूर्ण भी।
वैसे तो सौंदर्य निजरों में हुया करता
है परंतु देश के उतरार्द्ध में बसे हिमाचल प्रदेस की प्राकृतिक सुंदरता संपूर्ण जगत
में विख्यात है। यहा के पर्वतों की चोटियां, घाटियां, नदियां, पेड़ और मनमोहक हरियाळी के दृश्य लेखक की
कलम से वर्णित जैसे अक्षरों में आकार रूपवान हो उठे हैं। पुस्तक के पहले अध्याय ‘सिमला-डायरी’ में 21 जून 1987 से 26 जून 1987 के मध्य हिमाचल की राजस्थानी शिमला प्रवास
का वर्णन है। शिमला के परिवेश को लेखक इस प्रकार शब्द देता है- ‘ठीक इणी छिण अगूंण दिस भाखरां मांय सूं
सूरज उगाळी दीसै। उण दिस उजास पसरग्यो, पण सिमला नगर जिण नरम भाखर माथै है वौ तौ छिंयां मांय है,
दीसै ई कोनी । फगत डूंगर ई डूंगर दीसै।
उतराधै रूंखां लद्योड़ी घाटी है, बिचाळै-बिचाळै
मकांन। हवा री सूंसाट बेसी सुणीजण लागगी। उण लांबी-चौड़ी खुल्ली छात रै बीचोबीच
बैठक है। अठै तीनूं दिसावां मांय पसरी घाटियां रो फूठरापौ अेकदम दीठ नैं बांध
लेवै।’ (पृ. 13)
दूसरे अध्याय ‘देवां री घाटी’ में 27 जून 1987 से 3 जुलाई 1987 के मध्य मनाली, विपासा, कुल्लू, चण्डीगढ आदि की यात्राओं का वर्णन हुआ है।
यह वर्णन भी कोरा वर्णन नहीं है। भोलाभाई जगह-जगह प्रकृति के रूप-रंगों से साम्य
रखने वाली हिन्दी-गुजराती-संस्कृत की कविताओं का स्मरण करते कराते चलते हैं।
कुल्लू में घूमते हुए उन्हें अज्ञेय जी री स्मृति आती है जिसे वे इन शब्दों में
प्रकट करते हैं- ‘कुल्लू
बाबत पैलपोत आलेख म्हैं हिन्दी साहित्यकार अज्ञेय जी रौ बांच्यौ, इणी खातर आज घूमती वेळा उणां री ओळूं
लगोलग आवै। आपरै लेखन रै कांम पेटै वै कीं टैम मनाली रा अेकांतवास मांय रैया। वै
कठै रैया होवैला? (पृ.38)
तीसरे अध्याय ‘केरल सूं कागद’ में भारत रै दक्षिण प्रदेस केरल में
साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित तीन सप्ताह की अनुवाद-कार्यशाला के प्रवास का
संस्मरण पत्र-शैली में लिखा है। इस में तिरुवनंतपुरम, कन्याकुमारी, सुचीन्द्रम आदि के यात्रा-संस्मरण में
केरल की संस्कृति मूर्त हुई है। कन्याकुमारी में जहां लेखक स्वामी विवेकानंद को याद
करता है और साथ ही जैसे इस धरती के गर्वित इतियास के पन्ने भी पलटकर दिखा देता है।
इसमें एक जगह अनुवाद की मुश्किलों के बारे में विचार करते हुए लेखक लिखता है- ‘आं दिनां देस री अेकता अर अखंडतारी चरचा
होवै, पण अनेकता आपणै देस
अर संस्कृति री खासियत है। अनेकता बचाय’र अेकता किण भांत राखीजै? ज्यूंकै आपणै देस मांय कितरी भाषावां
बोलीजै? अबै सगळी भासावां रै
आपै री रुखाळी कर’र
आपसरी में किण भांत रो वैवार कर्यो जाय सकै? जुदा-जुदा भासा भासी अेक दूजै नैं कीकर
ओळखै? अर पछै देस रै टाळ
दुनियां री बात ई करणी पड़ै, तौ
कैवण रौ मतळब भासा री दुविधा खास रूप सूं होवै। उण दुविधा नैं मेटण रौ लूंठो साधन
है भासांतर-अनुवाद (पृ. 88)
अंतिम अध्याय ‘कुडल संगमदेव’ में कर्नाटक् के मैसूर, श्रीरंगपटनम्, हंपी आदि जगहों का वर्णन किया है। हम
जानते है कि यह अंचल धर्म की दृष्टि से ऊज्ज्वल अतीत का मालिक है, अस्तु लेखक इस यात्रा-संस्मरण
में शास्त्र और लोक में मौजूद कथाओं की सुंदर प्रस्तुति संचित की है। अेक बानगी देखिए-
‘अठै रै लोगां री
अैड़ी धारणा है कै जांनकी री सोय मांय निकळ्योड़ा राम-लिछमण-हड़मान इणी छेत्र मांय
सुग्रीव सूं मिल्या हा। रामायण रै घटना-स्थळां बाबत पुरातत्वविद् भलां ई सोध करता
रैवो, पण लोकचेतना मांय
रूढ़ आं घटना-स्थळां माथै पूग’र
अेक भांत रै रोमांच रो अणभव होयां बिना नीं रैवै।’ (पृ. 129)
गुजराती भाषा की तासीर राजस्थानी से बहुत मेल खाती है।
शायद यह कारण है कि पुस्तक पढ़ते हुए यात्रा-संस्मरण मूल रूप से राजस्थानी में ई रचे
हुए प्रतीत होते हैं। अेक अनुवादक के रूप में नीरज दइया री यह बड़ी सफळता है। पुस्तक
की भाषा सहज-सरल है परंतु रांम, जांनकी
जैसे शब्दों पर अनुस्वार प्रयोग खटकने वाले हैं। यह भाषा के मानकीकरण का मुद्दा
है। फिलहाल महत्त्वपूर्ण प्रकाशन के अनुवादक और अकादेमी को बधाई दी जानी अपेक्षित
है।
पुस्तक- देवां री
घाटी (यात्रा-संस्मरण )
गुजराती मूळ- भोलाभाई पटेल, राजस्थानी अनुवाद- नीरज दइया,
प्रकाशक- साहित्य अकादेमी, दिल्ली। प्रथम संस्करण- 2013, पृष्ठ- 136, मूल्य-
150/-