लोक संस्कृति के कवि डॉ. नीरज दइया

राजेंद्र जोशी
        हमारे समय के कवि आलोचक डॉ. नीरज दइया को लोक-संस्कृति का कवि कहने से मेरा अभिप्राय उनकी कविताओं में लोक का संपोषण एवं प्रतिष्ठा के लिए हुई अभिव्यक्ति है। काव्य-कृति "उचटी हुई नींद" में डॉ. दइया ने लोक का दर्द समझते हुए कविताओं की विषय-वस्तु में समाहित किया है।
        कविता-लोक में उनका रचाव एक ऐसी लोक-आत्मा को निर्मित करता है जो एक जिम्मेदार और सजग रचनाकार होने की अनिवार्य शर्त मानी जानी चाहिए। लोक के विविध पक्षों में विगसाव के लिए बेचैन कवि अपने जिस आत्म पक्ष को प्रस्तुत करते हैं वह मानो समस्याओं के समाधान नहीं वरन भोगे हुए यर्थाथ और अनुभूत सत्य जैसा है। अनुभव और अनुभूतियों का गहरा समन्वय इस संग्रह में अनेक स्थलों पर प्रकट हुआ है। प्रेम ही वह अवयव है जो प्राणियों को जिंदादिल बनाएं रखता है। कविताओं में प्रेमी हृदय की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्तियां जैसे इस संग्रह के प्राण है। बिना प्रेम के कुछ भी नहीं होता जैसी काव्य पंक्तियों का मर्म है कि बिना प्रेम के मुरझा जाते हैं रंग, उड़ जाती है खुशबू और खो जाती है हंसी बिना प्रेम के। आज की इस बदलती दुनिया में ये कविताएं इन सभी घटकों को बचाए और बनाए रखने का जैसे साक्ष्य भी प्रस्तुत करती हैं। निजी और अंतरग संबंधों की इन कविताओं में जहां नितांत निजता है वहीं सरज, सरल और प्रवाहमयी भाषिक रचाव भी पाठोपरांत स्मृति में सदा बना रहने वाला है। पाठकों के दिलों में रिश्ता बनाने वाली इन कविताओं के लिए डॉ. नीरज दइया को बधाई।